google-site-verification=NjzZlC7Fcg_KTCBLvYTlWhHm_miKusof8uIwdUbvX_U पौराणिक कथा: December 2018

Saturday, December 8, 2018

ऐतरेय ब्राह्मण की कथा

संसार में सबसे प्राचीन ग्रन्थ हमारे वेद हैं  ये चार हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद। प्रत्येक वेदों को दो भागों में बंटा है। जिन्हें मन्त्र तथा ब्राह्मण कहा जाता है। जिन ग्रन्थों में मन्त्रों का संग्रह है वे सहिंता पुकारे गए। ब्राह्मण के तीन उप भाग हुए ब्राह्मण आरण्यक तथा उपनिषद। ब्राह्मण ग्रन्थ मनुष्यों के नित्य प्रति के कर्मकाण्ड से सम्बंधित है। इन्हीं में एक ऐतरेय ब्राह्मण कहलाता है जिसमें चालीस अध्याय हैं। इस ऐतरेय ब्राह्मण का आविर्भाव किस प्रकार से हुआ यह कथा उसी से संबंधित है।

Aitareya Brahmana Story

ऐतरेय ब्राह्मण की कथा:

मांडुकी नाम के एक ऋषि थे, उनकी पत्नी का नाम इतरा था। वे दोनों ही भगवान के भक्त थे तथा अत्यंत पवित्र जीवन व्यतीत कर रहे थे। दोनों ही एक-दूसरे का ध्यान रखते थे तथा हंसी-ख़ुशी से समय काटते थे। दुःख था तो केवल एक कि उनके कोई संतान नहीं थी। सोच-विचार के पश्चात पुत्र प्राप्ति की इच्छा से दोनों ने कठिन तपस्या की तथा भगवान से बार-बार पुत्र के लिए प्रार्थना की।
आखिर कुछ समय पश्चात भगवान ने उनकी तपस्या तथा प्रार्थना से प्रसन्न होकर उनकी इच्छा को पूरा कर दिया। उनके घर में एक पुत्र का जन्म हुआ जो अत्यंत सुंदर तथा आकर्षक था। वह बालक उनकी महान तपस्या का फल था। यद्यपि बचपन से ही वह बालक अलौकिक एवं चमत्कारपूर्ण घटनाओं का जनक था, लेकिन प्रायः चुप ही रहता था। काफी दिनों के पश्चात उसने बोलना शुरू किया। आश्चर्य की बात यह थी कि वह जब भी बोलता ‘वासुदेव, वासुदेव’ ही कहता। आठ वर्ष तक उसने ‘वासुदेव’ शब्द के अतिरिक्त और कोई शब्द नहीं कहा। वह आंखे बंद किये चुप बैठा ध्यान करता रहता। उसके चेहरे पर तेज बरसता तथा आंखों में तीव्र चमक थी।
आठवें ववर्ष में बालक का यज्ञोपवीत संस्कार कराया गया तथा पिता ने उसे वेद पढ़ाने का प्रयास किया। लेकिन उसने कुछ भी नहीं पढ़ा, बस ‘वासुदेव’ नाम का संकीर्तन करता रहता। पिता हताश हो गए और उसे मुर्ख समझते हुए उसकी ओर ध्यान देना बंद कर दिया। परिणाम स्वरूप उसकी माता की ओर से भी उन्होंने मुंह फेर लिया।
कुछ दिनों पश्चात मांडुकी ऋषि ने दूसरा विवाह कर लिया जिससे अनेक पुत्र हुए। बड़े होकर वे सभी वेदो के तथा कर्मकांड के महान ज्ञाता हुए। चारों ओर उन्ही की पूजा होती थी। बेचारी पूर्व पत्नी घर में ही उपेक्षित जीवन व्यतीत कर रही थी। उसके पुत्र ऐतरेय को इसका बिलकुल ध्यान नहीं था। वह हर समय भगवान ‘वासुदेव’ का नाम जपता रहता तथा एक मंदिर में पड़ा रहता।
एक दिन माँ को अति क्षोभ हुआ। वह मंदिर में ही अपने पुत्र के पास पहुंची और उससे कहने लगी-“तुम्हारे होने से मुझे क्या लाभ हुआ ? तुम्हें तो कोई पूछता ही नहीं है, मुझे भी सभी घृणा की दृष्टी से देखते है। बताओ ऐसे जिवन से क्या लाभ है।”
माता की ऐसी दुखपूर्ण बाते सुनकर ऐतरेय को कुछ ध्यान हुआ, वह बोला- “माँ ! तुम तो संसार में आसक्त हो जबकि यह संसार और इसके भोग सब नाशवान है, केवल भगवान का नाम ही सत्य है। उसी का में जाप करता हूं लेकिन अब मैं समझ गया हूं कि मेरा अपनी माँ के प्रति भी कुछ कर्तव्य है। मैं उसको अब पूरा करूंगा और तुम्हे ऐसे स्थान पर पदासीन करूंगा जहां अनेक यज्ञ करके भी नहीं पहुंचा जा सकता।”
ऐतरेय ने भगवान विष्णु की सच्चे ह्रदय से वेदों की विधियों के अनुसार स्तुति की। इससे भगवान विष्णु प्रसन्न हो गए। उन्होंने साक्षात प्रकट होकर ऐतरेय और उसकी माता को आशीर्वाद दिया- “पुत्र ! यद्यपि तुमने वेदो का अध्धयन नहीं किया है। लेकिन मेरी कृपा से तुम सभी वेदो के ज्ञाता और प्रकांड विद्वान हो जाओगे। तुम वेद के एक अज्ञात भाग की भी खोज करोगे। वह तुम्हारे नाम से ऐतरेय ब्राह्मण कहलायेगा। विवाह करो, गृहस्थी बसाओ तथा सभी कर्म करो, लेकिन सबको मुझे समर्पित कर दो अर्थात यह सोचकर करो कि मेरे आदेश से कर रहे हो। उनमे आसक्त मत होना, तब तुम संसार में नहीं फंसोगे। एक स्थान जो कोटितीर्थ कहलाता है, वहां जाओ। वहां पर हरिमेधा यज्ञ कर रहे है। तुम्हारे जैसे विद्वान की वहां आवश्यकता है। वहां जाने पर तुम्हारी माता की सभी इच्छाएं पूरी हो जाएगी।” इतना कहकर भगवान विष्णु अंतर्धान हो गए।
माता का ह्रदय अपने पुत्र के प्रति बजाय ममता के श्रद्धा से ओतप्रोत हो गया। उसी के कारण तो उसे भी भगवान के दर्शन हुए थे तथा अपनी माता के कारण ही उसने भगवान के नाम के अतिरिक्त कुछ न बोला था। अब दोनों माता और पुत्र भगवान की आज्ञा का पालन करते हुए हरिमेधा के यज्ञ में पहुंच गए। वहां ऐतरेय ने भगवान विष्णु से संबंधित प्रार्थना का गान किया। उसे सुनकर तथा उनके तेज और विद्व्ता से सभी उपस्थित विद्वान प्रभावित हो गए। हरिमेधा ने उन्हें ऊंचे आसन पर बैठाकर उनका परिचय प्राप्त किया तथा उनकी आवभगत की।
ऐतरेय ने यहीं पर वेद नवीन चालीस अध्यायों का पाठ किया। ये पाठ अभी तक पूरी तरह अज्ञात थे। बाद में ये पाठ ऐतरेय ब्राह्मण के नाम से विख्यात हुए। हरिमेधा ने ऐतरेय से अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।
ऐतरेय की माता ने अपने पुत्र से जो कामना की थी, वह उसे प्राप्त हो गई थी। भगवान विष्णु की कृपा से ऐतरेय का नाम महर्षि ऐतरेय के रूप में सदा-सदा के लिए अमर हो गया।

अयोध्या की राजकुमारी जो बनी थी कोरिया की महारानी

वैसे तो पूरी दुनिया में अयोध्या को भगवान राम के कारण पहचाना जाता है लेकिन कोरिया के लोगों का अयोध्या से जुड़ाव का एक अन्य कारण और भी है। कोरिया के पौराणिक दस्तावेजों के अनुसार अयोध्या की एक राजकुमारी, कोरिया की महारानी बनी थी।

Ayodhya princesses Hindi story which was queen of Korea


कोरिया के पौराणिक इतिहास में यह बात दर्ज है कि करीब दो हजार साल पहले अयोध्या की राजकुमारी सुरीरत्ना नी हु ह्वांग ओक, अयुता यानि अयोध्या से दक्षिण कोरिया के ग्योंगसांग प्रांत में स्थित किमहये शहर आ गई थी।
मंदारिन भाषा में लिखे कोरिया के पौराणिक दस्तावेज ‘साम गुक युसा’  में उल्लिखित कथा के अनुसार अयोध्या की राजकुमारी के पिता के स्वप्न में स्वयं ईश्वर प्रकट हुए और उन्होंने राजकुमारी के पिता से कहा कि वह अपने बेटे और राजकुमारी को विवाह के लिए किमहये शहर भेजें, जहां सुरीरत्ना का विवाह राजा सुरो के साथ संपन्न होगा।
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16 वर्ष की उम्र में राजकुमारी सुरीरत्ना का विवाह किमहये राजवंश के राजकुमार सुरो के साथ संपन्न हुआ। किमहये राजवंश के नाम पर ही वर्तमान कोरिया का नामकरण हुआ है।
कोरिया के लोगों का मानना है कि सुरीरत्ना और राजा सुरो के वंशजों ने ही 7वीं शताब्दी में कोरिया के विभिन्न राजघरानों की स्थापना की थी। इनके वंशजों को कारक वंश का नाम दिया गया है जो कि कोरिया समेत विश्व के अलग-अलग देशों में उच्च पदों पर आसीन हैं। कोरिया के एक पूर्व राष्ट्रपति भी इसी वंश से संबंध रखते थे।
यूं तो कोरिया के इतिहास में अनेक महारानियों का नाम दर्ज हैं, लेकिन सभी में से सुरीरत्ना को ही सबसे अधिक आदरणीय और पवित्र माना गया, जिसका कारण ये था कि उनकी जड़ें भगवान राम की नगरी अयोध्या से जुड़ी हुई थीं।
कोरिया के पौराणिक दस्तावेज ‘साम कुक युसा’ में राजा सुरो और सुरीरत्ना के विवाह की कहानी भी दर्ज है, जिसके अनुसार प्राचीन कोरिया में कारक वंश को स्थापित करने वाले राजा सुरो की पत्नी रनी हौ (यानि सुरीरत्ना) मूल रूप से आयुत (अयोध्या) की राजकुमारी थी। सुरो से विवाह करने के लिए उनके पिता ने उन्हें समुद्र के रास्ते से दक्षिण कोरिया स्थित कारक राज्य भेजा था।
आज की तारीख में कोरिया में कारक गोत्र के तकरीबन 60 लाख लोग स्वयं को राजा सुरो और अयोध्या की राजकुमारी का वंशज बताते हैं। सुरो और सुरीरत्ना की दास्तां पर यकीन करने वाले लोगों की आबादी दक्षिण कोरिया की कुल आबादी का दसवां भाग है।
कोरिया के पूर्व राष्ट्रपति किम देई जुंग और पूर्व प्रधानमंत्री हियो जियोंग और जोंग पिल किम कारक वंश से ही संबंध रखते थे। कारक वंश के लोगों ने उस पत्थर को भी सहेज कर रखा है जिसके विषय में यह कहा जाता है कि अयोध्या की राजकुमारी सुरीरत्ना अपनी समुद्र यात्रा के दौरान नाव का संतुलन बनाए रखने के लिए उसे रखकर लाई थी। किमहये शहर में राजकुमारी हौ की प्रतिमा भी है।
कोरिया में रहने वाले कारक वंश के लोगों का एक समूह हर साल फरवरी-मार्च के दौरान राजकुमारी सुरीरत्ना की मातृभूमि पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने अयोध्या आता है।
हालांकि भारतीय प्राचीन दस्तावेजों में कहीं भी यह जिक्र नहीं मिलता कि सुरीरत्ना का विवाह कोरिया के राजा के साथ हुआ था हालांकि उत्तर प्रदेश के पर्यटन विभाग के एक ब्रोशर में कोरिया की रानी का जिक्र है। भारतीय दस्तावेजों में भी इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं हैं कि राजकुमारी सुरीरत्ना का संबंध भगवान राम के वंश से था। संबंधित कथाओं के अनुसार सुरीरत्ना या हौ का निधन 57 वर्ष की उम्र में हुआ था

भगवान श्रीकृष्ण की माखनचोरी लीला

ब्रज घर-घर प्रगटी यह बात। दधि माखन चोरी करि लै हरि, ग्वाल सखा सँग खात।। ब्रज-बनिता यह सुनि मन हरषित, सदन हमारैं आवैं। माखन खात अचानक...