'सुखद शरद का हुआ आगमन
वन में खड़ी हुई ग्वालिन।
लो, बांट रहे हैं सुरभि सुमन,
उस मलयाचल से बही पवन।'
ऐसा था वह प्रफुल्ल करने वाला पावन समय। हृदयाकाश में शरद ऋतु होनी चाहिए। अब हृदय में वासना विकार के बादल नहीं हैं। आकाश स्वच्छ है। शरद ऋतु में आकाश निरभ्र रहता है। नदियों की गंदगी नीचे बैठ जाती है। शंख जैसा स्वच्छ पानी बहता रहता है। हमारा जीवन भी ऐसा ही होना चाहिए। आसक्ति के बादल नहीं घिरने चाहिए। अनासक्त रीति से केवल ध्येयभूत कर्मों में ही मन रंग जाना चाहिए। रात-दिन आचार और विचार शुद्ध होते रहने चाहिए।
शरद ऋतु है और है शुक्ल पक्ष। प्रसन्न चंद्र का उदय हो चुका है। चंद्र का मतलब है मन का देवता। चंद्र उगा है, इसका यह मतलब है कि मन का पूर्ण विकास हो गया है। सद्भाव खिल गया है। सद्विचारों की शुभ चांदनी खिली हुई है। अनासक्त हृदयाकाश में चंद्र सुशोभित हुआ है। प्रेम की पूर्णिमा खिल गई है।
ऐसे समय सारी गोपियां इकट्ठी होती हैं। सारी मनःप्रवृत्तियां श्रीकृष्ण के आसपास इकट्ठी हो जाती हैं। उन्हें इस बात की व्याकुलता रहती है कि हृदय सुव्यवस्थिता पैदा करने वाला, गड़बड़ी में से सुंदरता का निर्माण करने वाला वह श्यामसुंदर कहां है? उस ध्येयरूपी श्रीकृष्ण की मुरली सुनने के लिए सारी वृत्तियां अधीर हो उठती हैं।
एक बंगाली गीत में मैंने एक बड़ा ही अच्छा भाव पढ़ा था। एक गोपी कहती है- 'अपने आंगन में कांटे बिखेरकर मैं उसके ऊपर चलने की आदत बना रही हूं। क्योंकि उसकी मुरली सुनकर मुझे दौड़ना पड़ता है और यदि मार्ग में कांटे हों तो शायद एकाध बार मुझे रुकना पड़ेगा। यदि आदत हो तो अच्छा रहेगा।'
'अपने आंगन में पानी डालकर मैं खूब कीच बना देती हूं और मैं उस कीच में चलने का अभ्यास करती हूं। क्योंकि उसकी मुरली सुनते ही मुझे जाना पड़ता है और यदि मार्ग में कीचड़ हुआ तो परेशानी होगी, लेकिन यदि आदत हुई तो भाग निकलुंगी।'
एक बार ध्येय के निश्चित हो जाने पर फिर चाहे वह विष हो, अपने मन का आकर्षण उसी तरफ होना चाहिए। कृष्ण की मुरली सुनते ही सबको दौड़ते हुए आना चाहिए। घेरा बनाना चाहिए। हाथ में हाथ डालकर नाचना चाहिए। अंतर्बाह्य एकता होनी चाहिए।
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