हे खग ! अब नर देह के दो रुपों के विषय में सुनो – एक व्यवहारिक तथा दूसरा पारमार्थिक है।
हे विनतासुत ! व्यवहारिक शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम, सात लाख केश, बीस नख तथा बत्तीस दाँत सामान्यत: बताए गए हैं। इस शरीर में एक हजार पल मांस, सौ पल रक्त, दस पल मेदा, सत्तर पल त्वचा, बारह पल मज्जा और तीन पल महारक्त होता है। पुरुष के शरीर में दो कुड़व शुक्र और स्त्री के शरीर में एक कुड़व शोणित (रज) होता है। संपूर्ण शरीर में तीन सौ साठ हड्डियाँ कही गई हैं। शरीर में स्थूल और सूक्ष्मरूप से करोड़ों नाड़ियाँ हैं। इसमें पचास पल पित्त और उसका आधा अर्थात पच्चीस पल श्लेष्मा (कफ) बताया गया है।
सदा होने वाले विष्ठा और मूत्र का प्रमाण निश्चित नहीं किया गया है। व्यवहारिक शरीर इन उपर्युक्त गुणों से युक्त है। पारमार्थिक शरीर में सभी चौदहों भुवन, सभी पर्वत, सभी द्वीप एवं सभी सागर तथा सूर्य आदि ग्रह सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहते हैं। पारमार्थिक शरीर में मूलाधार आदि छ: चक्र होते हैँ। ब्रह्माण्ड में जो गुण कहे गए हैं, वे सभी इस शरीर में स्थित हैं
योगियों के धारणास्पद उन गुणों को मैं बताता हूँ, जिनकी भावना करने से जीव विराट स्वरुप का भागी हो जाता है। पैर के तलवे में तललोक तथा पैर के ऊपर वितललोक जानना चाहिए। इसी प्रकार जानु में सुतललोक और जाँघों में महातल लोक जानना चाहिए। सक्थि के मूल में तलातल, गुह्यस्थान में रसातल, कटिप्रदेश में पाताल – इस प्रकार पैरों के तलवों से लेकर कटिपर्यन्त सात अधोलोक कहे गए हैं।
नाभि के मध्य में भूर्लोक, नाभि के ऊपर भुवर्लोक, हृदय में स्वर्लोक, कण्ठ में महर्लोक, मुख में जनलोक, ललाट में तपोलोक और ब्रह्मरन्ध्र में सत्यलोक स्थित है। इस प्रकार चौदह लोक पारमार्थिक शरीर में स्थित हैं। त्रिकोण के मध्य में मेरु, अध:कोण में मन्दर, दाहिने कोण में कैलास, वामकोण में हिमाचल, ऊर्ध्वरेखा में निषध, दाहिनी ओर की रेखा में गन्धमादन तथा बायीं ओर की रेखा में रमणाचल नामक पर्वत स्थित है। ये सात कुलपर्वत इस पारमार्थिक शरीर में है।
अस्थि में जम्बूद्वीप, मज्जा में शाकद्वीप, मांस में कुशद्वीप, शिराओं में क्रौंचद्वीप, त्वचा में शाल्मलीद्वीप, रोमसमूह में गोमेदद्वीप और नख में पुष्करद्वीप की स्थिति जाननी चाहिए। तत्पश्चात सागरों की स्थिति इस प्रकार है – हे विनतासुत ! क्षारसमुद्र मूत्र में, क्षीरसागर दूध में, सुरा का सागर श्लेष्म (कफ) में, घृत का सागर मज्जा में, रस का सागर शरीरस्थ रस में और दधिसागर रक्त में स्थित समझना चाहिए। स्वादूदक सागर को लम्बिका स्थान (कण्ठ के लटकते हुए भाग अथवा उपजिह्वा या काकल) में समझना चाहिए।
नादचक्र में सूर्य, बिन्दु चक्र में चन्द्रमा, नेत्रों में मंगल और हृदय में बुध को स्थित समझना चाहिए। विष्णुस्थान अर्थात नाभि में स्थित मणिपूरक चक्र में बृहस्पति तथा शुक्र में शुक्र स्थित हैं, नाभिस्थान नाभि (गोलक) में शनैश्चर स्थित है और मुख में राहु स्थित कहा गया है। वायु स्थान में केतु स्थित है, इस प्रकार समस्त ग्रहमण्डल इस पारमार्थिक शरीर में विद्यमान है। इस प्रकार अपने इस शरीर में समस्त ब्रहमाण्ड का चिन्तन करना चाहिए। (गरुड़ पुराण)
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