स्वायम्भुवमन्वन्तर में जब माता देवकी का पहला जन्म हुआ था, उस समय उनका नाम ‘पृश्नि’ तथा वसुदेव ‘सुतपा’ नामक प्रजापति थे। दोनों ने संतान प्राप्ति की अभिलाषा से सूखे पत्ते खाकर और कभी हवा पीकर देवताओं का बारह हजार वर्षों तक तप किया।
इन्द्रियों का दमन करके दोनों ने वर्षा, वायु, धूप, शीत आदि काल के विभिन्न गुणों को सहन किया और प्राणायाम के द्वारा अपने मन के मल धो डाले। उनकी परम तपस्या, श्रद्धा और प्रेममयी भक्ति से प्रसन्न होकर श्रीविष्णु उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए उनके सामने प्रकट हुए और उन दोनों से कहा:——-** कि ‘तुम्हारी जो इच्छा हो माँग लो।’
तब उन दोनों ने भगवान श्रीहरि जैसा पुत्र माँगा। भगवान विष्णु उन्हें तथास्तु कहकर अन्तर्धान हो गये।
वर देने के बाद भगवान ने शील, स्वभाव, उदारता आदि गुणों में अपने जैसा अन्य किसी को नहीं देखा। ऐसी स्थिति में भगवान ने विचार किया कि मैंने उनको वर तो दे दिया कि मेरे-सदृश्य पुत्र होगा, परन्तु इसको मैं पूरा नहीं कर सकता; क्योंकि संसार में वैसा अन्य कोई है ही नहीं
किसी को कोई वस्तु देने की प्रतिज्ञा करके पूरी ना कर सके तो उसके समान तिगुनी वस्तु देनी चाहिए। ऐसा विचारकर भगवान ने स्वयं उन दोनों के पुत्र के रूप में तीन बार अवतार लेने का निर्णय किया।
इसलिए भगवान जब प्रथम बार उन दोनों के पुत्र हुए, उस समय वे ‘पृश्निगर्भ’ के नाम से जाने गये।
दूसरे जन्म में माता पृश्नि ‘अदिति’ हुईं और सुतपा ‘कश्यप’ हुए।
उस समय भगवान ‘वामन’ के रूप में उनके पुत्र हुए।
फिर द्वापर में उन दोनों का तीसरा जन्म हुआ। इस जन्म में वही अदिति ‘देवकी’ हुईं और कश्यप ‘वसुदेवजी’ हुए और अपने वचन को सच करने के लिए भगवान विष्णु ने उनके पुत्र के रूप में श्रीकृष्णावतार लिया।
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