google-site-verification=NjzZlC7Fcg_KTCBLvYTlWhHm_miKusof8uIwdUbvX_U पौराणिक कथा: October 2018

Wednesday, October 24, 2018

जीण माता मंदिर औरंगजेब भी नहीं कर पाया था इस मंदिर को खंडित, मधुमक्खियों ने की थी रक्षा

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औरंगजेब भी नहीं कर पाया था इस मंदिर को खंडित, मधुमक्खियों ने की थी रक्षा – दुर्गा मां के कई रूप और अवतार हैं। हमारे देश में दुर्गा मां को शक्ति की देवी के रूप में पूजा जाता है। यही वजह है कि पूरे भारत में नवरात्र के अवसर पर माता के मंदिरों में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है। नवरात्रि के पावन पर्व पर हम आपको आज एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहे है, जिसे मुगल बादशाह औरंगजेब की सेना तोडऩे पहुंची तो मधुमक्खियों (भंवरों) ने उन पर हमला कर, उनके नापाक मंसूबों को नाकाम कर दिया था।


औरंगजेब ने करी थी तोड़ने की कोशिश

लोक मान्यता के अनुसार एक बार मुगल बादशाह औरंगजेब ने राजस्थान के सीकर में स्थित जीण माता और भैरों के मंदिर को तोडऩे के लिए अपने सैनिकों को भेजा। जब यह बात स्थानीय लोगों को पता चली तो बहुत दुखी हुए। बादशाह के इस व्यवहार से दुखी होकर लोग जीण माता की प्रार्थना करने लगे। इसके बाद जीण माता ने अपना चमत्कार दिखाया और वहां पर मधुमक्खियों के एक झुंड ने मुगल सेना पर धावा बोल दिया।
मधुमक्खियों के काटे जाने से बेहाल पूरी सेना घोड़े और मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई। कहते है कि स्वयं बादशाह की हालत बहुत गंभीर हो गई तब बादशाह ने अपनी गलती मानकर माता को अखंड ज्योज जलाने का वचन दिया और कहा कि वह हर महीने सवा मन तेल इस ज्योत लिए भेंट करेगा। इसके बाद औरंगजेब की तबीयत में सुधार होने लगा।
पहले दिल्ली से फिर जयपुर से बादशाह भिजवाता रहा तेल
कहते हैं कि बादशाह ने कई सालों तक तेल दिल्ली से भेजा। फिर जयपुर से भेजा जाने लगा। औरंगजेब के बाद भी यह परंपरा जारी रही और जयपुर के महाराजा ने इस तेल को मासिक के बजाय वर्ष में दो बार नवरात्र के समय भिजवाना आरम्भ कर दिया। महाराजा मान सिंह जी के समय उनके गृह मंत्री राजा हरी सिंह अचरोल ने बाद में तेल के स्थान पर नगद 20 रु. तीन आने प्रतिमाह कर दिए। जो निरंतर प्राप्त होते रहे।
भाई के स्नेह पर लगी थी जीण माता और उनकी भाभी में शर्त
ऐसा माना जाता है कि जीण माता का जन्म चौहान वंश के राजपूत परिवार में हुआ था। वह अपने भाई से बहुत स्नेह करती थीं। माता जीण अपनी भाभी के साथ तालाब से पानी लेने गई। पानी लेते समय भाभी और ननद में इस बात को लेकर झगड़ा शुरू हो गया कि हर्ष किसे ज्यादा स्नेह करता है। इस बात को लेकर दोनों में यह निश्चय हुआ कि हर्ष जिसके सिर से पानी का मटका पहले उतारेगा वही उसका अधिक प्रिय होगा। भाभी और ननद दोनों मटका लेकर घर पहुंची लेकिन हर्ष ने पहले अपनी पत्नी के सिर से पानी का मटका उतारा। यह देखकर जीण माता नाराज हो गई।
बहन को मनाने निकले हर्ष, नहीं मानी तो खुद की भैरों की तपस्या
नाराज होकर वह आरावली के काजल शिखर पर पहुंच कर तपस्या करने लगीं। तपस्या के प्रभाव से राजस्थान के चुरु में ही जीण माता का वास हो गया। अभी तक हर्ष इस विवाद से अनभिज्ञ था। इस शर्त के बारे में जब उन्हें पता चला तो वह अपनी बहन की नाराजगी को दूर करने उन्हें मनाने काजल शिखर पर पहुंचे और अपनी बहन को घर चलने के लिए कहा लेकिन जीण माता ने घर जाने से मना कर दिया। बहन को वहां पर देख हर्ष भी पहाड़ी पर भैरों की तपस्या करने लगे और उन्होंने भैरो पद प्राप्त कर लिया।
एक हजार वर्ष से भी अधिक पुराना है जीण माता का मंदिर
जीण माता का वास्तविक नाम जयंती माता है। माना जाता है कि माता दुर्गा की अवतार है। घने जंगल से घिरा हुआ है यह मंदिर तीन छोटी पहाड़ों के संगम पर स्थित है। इस मंदिर में संगमरमर का विशाल शिव लिंग और नंदी प्रतिमा आकर्षक है। इस मंदिर के बारे में कोई पुख्ता जानकारी उपलब्ध नहीं है। फिर भी कहते हैं की माता का मंदिर 1000 साल पुराना है। लेकिन कई इतिहासकार आठवीं सदी में जीण माता मंदिर का निर्माण काल मानते हैं।
श्री जीण धाम की मर्यादा व पूजा विधि
  • जीण माता मन्दिर स्थित पुरी सम्प्रदाय की गद्‌दी (धुणा) की पूजा पाठ केवल पुरी सम्प्रदाय के साधुओं द्वारा ही किया जाता है।
  • जो पुजारी जीण माता की पूजा करते हैं, वो पाराशर ब्राह्मण हैं।
  • जीण माता मन्दिर पुजारियों के लगभग 100  परिवार हैं जिनका बारी-बारी से पूजा का नम्बर आता है।
  • पुजारियों का उपन्यन संस्कार होने के बाद विधि विधान से ही पूजा के लिये तैयार किया जाता है।
  • पूजा समय के दौरान पुजारी को पूर्ण ब्रह्मचार्य का पालन करना होता है व उसका घर जाना पूर्णतया निषेध होता है।
  • जीण माता मन्दिर में चढ़ी हुई वस्तु ( कपड़ो, जेवर) का प्रयोग पुजारियों की बहन-बेटियां ही कर सकती हैं। उनकी पत्नियों के लिए निषेध होता है।
  • जीण भवानी की सुबह 4 बजे मंगला आरती होती है। आठ बजे श्रृंगार के बाद आरती होती है व सायं सात बजे आरती होती है। दोनों आरतियों के बाद भोग (चावल) का वितरण होता है।
  • माता के मन्दिर में प्रत्येक दिन आरती समयानुसार होती है। चन्द्रग्रहण और सूर्य ग्रहण के समय भी आरती अपने समय पर होती है।
  • हर महीने शुक्ल पक्ष की अष्टमी को विशेष आरती व प्रसाद का वितरण होता है।
  • माता के मन्दिर के गर्भ गृह के द्वार (दरवाजे) 24 घंटे खुले रहते हैं। केवल श्रृंगार के समय पर्दा लगाया जाता है।
  • हर वर्ष शरद पूर्णिमा को मन्दिर में विशेष उत्सव मनाया जाता है, जिसमें पुजारियों की बारी बदल जाती है।
  • हर वर्ष भाद्रपक्ष महीने में शुक्ल पक्ष में श्री मद्‌देवी भागवत का पाठ व महायज्ञ होता है।
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क्यों लिया देवी माँ ने भ्रामरी देवी और शाकंभरी माता का अवतार?

ऐसे हुआ भ्रामरी देवी का अवतार
Bhramari Devi, Goddess of Bees
देवताओं की सहायता के लिए देवी ने अनेक अवतार लिए। भ्रामरी देवी का अवतार लेकर देवी ने अरुण नामक दैत्य से देवताओं की रक्षा की। इसकी कथा इस प्रकार है-
पूर्व समय की बात है। अरुण नामक दैत्य ने कठोर नियमों का पालन कर भगवान ब्रह्मा की घोर तपस्या की। तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मदेव प्रकट हुए और अरुण से वर मांगने को कहा। अरुण ने वर मांगा कि कोई युद्ध में मुझे नहीं मार सके न किसी अस्त्र-शस्त्र से मेरी मृत्यु हो, स्त्री-पुरुष के लिए मैं अवध्य रहूं और न ही दो व चार पैर वाला प्राणी मेरा वध कर सके। साथ ही मैं देवताओं पर विजय प्राप्त कर सकूं।
ब्रह्माजी ने उसे यह सारे वरदान दे दिए। वर पाकर अरुण ने देवताओं से स्वर्ग छीनकर उस पर अपना अधिकार कर लिया। सभी देवता घबराकर भगवान शंकर के पास गए। तभी आकाशवाणी हुई कि सभी देवता देवी भगवती की उपासना करें, वे ही उस दैत्य को मारने में सक्षम हैं। आकाशवाणी सुनकर सभी देवताओं ने देवी की घोर तपस्या की। प्रसन्न होकर देवी ने देवताओं को दर्शन दिए। उनके छह पैर थे। वे चारों ओर से असंख्य भ्रमरों (एक विशेष प्रकार की बड़ी मधुमक्खी) से घिरी थीं। उनकी मुट्ठी भी भ्रमरों से भरी थी।
भ्रमरों से घिरी होने के कारण देवताओं ने उन्हें भ्रामरी देवी के नाम से संबोधित किया। देवताओं से पूरी बात जानकार देवी ने उन्हें आश्वस्त किया तथा भ्रमरों को अरुण को मारने का आदेश दिया। पल भर में भी पूरा ब्रह्मांड भ्रमरों से घिर गया। कुछ ही पलों में असंख्य भ्रमर अतिबलशाली दैत्य अरुण के शरीर से चिपक गए और उसे काटने लगे। अरुण ने काफी प्रयत्न किया लेकिन वह भ्रमरों के हमले से नहीं बच पाया और उसने प्राण त्याग दिए। इस तरह देवी भगवती ने भ्रामरी देवी का रूप लेकर देवताओं की रक्षा की।

इसलिए माता को कहते हैं शाकंभरी
दानवों के उत्पात से त्रस्त भक्तों ने जब कई वर्षों तक सूखा एवं अकाल से ग्रस्त होकर देवी से प्रार्थना की तब देवी ऐसे अवतार में प्रकट हुई, जिनकी हजारों आखें थी। अपने भक्तों को इस हाल में देखकर देवी की इन हजारों आंखों से नौ दिनों तक लगातार आंसुओं की बारिश हुई, जिससे पूरी पृथ्वी पर हरियाली छा गई तथा जीवन रस से परिपूर्ण हो गया।
यही देवी शताक्षी के नाम से भी प्रसिद्ध हुई एवं इन्ही देवी ने कृपा करके अपने अंगों से कई प्रकार की शाक, फल एवं वनस्पतियों को प्रकट किया। इसलिए उनका नाम शाकंभरी प्रसिद्ध हुआ। पौष मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से शाकंभरी नवरात्रि का आरंभ होता है, जो पौष पूर्णिमा पर समाप्त होता है। इस दिन शाकंभरी जयंती का पर्व मनाया जाता है।
मान्यता के अनुसार इस दिन असहायों को अन्न, शाक(कच्ची सब्जी), फल व जल का दान करने से अत्यधिक पुण्य की प्राप्ति होती हैं व देवी दुर्गा प्रसन्न होती हैं।

श्री राम के अलावा इन 4 से भी हार गया था रावण


अधिकतर लोग यही जानते हैं कि रावण सिर्फ श्रीराम से ही हारा था, लेकिन ये सच नहीं है। रावण श्रीराम के अलावा शिवजी, राजा बलि, बालि और सहस्त्रबाहु से भी पराजित हो चुका था। यहां जानिए इन चारों से रावण कब और कैसे हारा था…

बालि से रावण की हार
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एक बार रावण बालि से युद्ध करने के लिए पहुंच गया था। बालि उस समय पूजा कर रहा था। रावण बार-बार बालि को ललकार रहा था, जिससे बालि की पूजा में बाधा उत्पन्न हो रही थी। जब रावण नहीं माना तो बालि ने उसे अपनी बाजू में दबा कर चार समुद्रों की परिक्रमा की थी। बालि बहुत शक्तिशाली था और इतनी तेज गति से चलता था कि रोज सुबह-सुबह ही चारों समुद्रों की परिक्रमा कर लेता था। इस प्रकार परिक्रमा करने के बाद सूर्य को अर्घ्य अर्पित करता था। जब तक बालि ने परिक्रमा की और सूर्य को अर्घ्य अर्पित किया तब तक रावण को अपने बाजू में दबाकर ही रखा था। रावण ने बहुत प्रयास किया, लेकिन वह बालि की गिरफ्त से आजाद नहीं हो पाया। पूजा के बाद बालि ने रावण को छोड़ दिया था।
सहस्त्रबाहु अर्जुन से रावण की हार
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सहस्त्रबाहु अर्जुन के एक हजार हाथ थे और इसी वजह से उसका नाम सहस्त्रबाहु पड़ा था। जब रावण सहस्त्रबाहु से युद्ध करने पहुंचा तो सहस्त्रबाहु ने अपने हजार हाथों से नर्मदा नदी के बहाव को रोक दिया था। सहस्त्रबाहु ने नर्मदा का पानी इकट्ठा किया और पानी छोड़ दिया, जिससे रावण पूरी सेना के साथ ही नर्मदा में बह गया था। इस पराजय के बाद एक बार फिर रावण सहस्त्रबाहु से युद्ध करने पहुंच गया था, तब सहस्त्रबाहु ने उसे बंदी बनाकर जेल में डाल दिया था।

राजा बलि के महल में रावण की हार
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दैत्यराज बलि पाताल लोक के राजा थे। एक बार रावण राजा बलि से युद्ध करने के लिए पाताल लोक में उनके महल तक पहुंच गया था। वहां पहुंचकर रावण ने बलि को युद्ध के लिए ललकारा, उस समय बलि के महल में खेल रहे बच्चों ने ही रावण को पकड़कर घोड़ों के साथ अस्तबल में बांध दिया था। इस प्रकार राजा बलि के महल में रावण की हार हुई।
शिवजी से रावण की हार
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रावण बहुत शक्तिशाली था और उसे अपनी शक्ति पर बहुत ही घमंड भी था। रावण इस घमंड के नशे में शिवजी को हराने के लिए कैलाश पर्वत पर पहुंच गया था। रावण ने शिवजी को युद्ध के लिए ललकारा, लेकिन महादेव तो ध्यान में लीन थे। रावण कैलाश पर्वत को उठाने लगा। तब शिवजी ने पैर के अंगूठे से ही कैलाश का भार बढ़ा दिया, इस भार को रावण उठा नहीं सका और उसका हाथ पर्वत के नीचे दब गया। बहुत प्रयत्न के बाद भी रावण अपना हाथ वहां से नहीं निकाल सका। तब रावण ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए उसी समय शिव तांडव स्रोत रच दिया। शिवजी इस स्रोत से बहुत प्रसन्न हो गए और उसने रावण को मुक्त कर दिया।  मुक्त होने के पश्चात रावण ने शिवजी को अपना गुरु बना लिया।


इस मान्यता के कारण सबसे ज्यादा पैसा है त‌िरुप‌त‌ि बालाजी के पास, पर फिर भी है गरीब

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अगर धन के आधार पर देखा जाए तो वर्तमान में सबसे धनवान भगवान बालाजी हैं। एक आंकड़े के अनुसार बालाजी मंद‌िर ट्रस्ट के खजाने में 50 हजार करोड़ से अध‌िक की संपत्त‌ि है। लेक‌िन इतने धनवान होने पर भी बालाजी सभी देवताओं से गरीब ही हैं

धनवान होकर भी गरीब हैं बालाजी
आप सोच रहे होंगे क‌ि इतना पैसा होने पर भी भगवान गरीब कैसे हो सकते हैं। और दूसरा सवाल यह भी आपके मन में उठ सकता है क‌ि जो सबकी मनोकामना पूरी करता है वह खुद कैसे गरीब हो सकता है।
लेक‌िन त‌िरुपत‌ि बालाजी के बारे में ऐसी प्राचीन कथा है ज‌िसके अनुसार बालाजी कल‌ियुग के अंत तक कर्ज में रहेंगे। बालाजी के ऊपर जो कर्ज है उसी कर्ज को चुकाने के ल‌िए यहां भक्त सोना और बहुमूल्य धातु एवं धन दान करते हैं।
शास्‍त्रों के अनुसार कर्ज में डूबे व्यक्त‌ि के पास क‌ितना भी धन हो वह गरीब ही होता है। इस न‌ियम के अनुसार यह माना जाता है क‌ि धनवान होकर भी गरीब हैं बालाजी।
आख‌िर कर्ज में क्यों डूबे हैं त‌िरुपत‌ि बालाजी
प्राचीन कथा के अनुसार एक बार महर्ष‌ि भृगु बैकुंठ पधारे और आते ही शेष शैय्या पर योगन‌िद्रा में लेटे भगवान व‌िष्‍णु की छाती पर एक लात मारी। भगवान व‌िष्‍णु ने तुरंत भृगु के चरण पकड़ ल‌िए और पूछने लगे क‌ि ऋष‌िवर पैर में चोट तो नहीं लगी।
भगवान व‌िष्‍णु का इतना कहना था क‌ि भृगु ऋष‌ि ने दोनों हाथ जोड़ ल‌िए और कहने लगे प्रभु आप ही सबसे सहनशील देवता हैं इसल‌िए यज्ञ भाग के प्रमुख अध‌िकारी आप ही हैं। लेक‌िन देवी लक्ष्मी को भृगु ऋष‌ि का यह व्यवहार पसंद नहीं आया और वह व‌िष्‍णु जी से नाराज हो गई। नाराजगी इस बात से थी क‌ि भगवान ने भृगु ऋष‌ि को दंड क्यों नहीं द‌िया।
नाराजगी में देवी लक्ष्मी बैकुंठ छोड़कर चली गई। भगवान व‌िष्‍णु ने देवी लक्ष्मी को ढूंढना शुरु क‌िया तो पता चला क‌ि देवी ने पृथ्‍वी पर पद्मावती नाम की कन्या के रुप में जन्म ल‌िया है। भगवान व‌िष्‍णु ने भी तब अपना रुप बदला और पहुंच गए पद्मावती के पास। भगवान ने पद्मावती के सामने व‌िवाह का प्रस्ताव रखा ज‌िसे देवी ने स्वीकार कर ल‌िया।
लेक‌िन प्रश्न सामने यह आया क‌ि व‌िवाह के ल‌िए धन कहां से आएगा।
और इस तरह धनवान होते जा रहे हैं बाला जी
व‌िष्‍णु जी ने समस्या का समाधान न‌िकालने के ल‌िए भगवान श‌िव और ब्रह्मा जी को साक्षी रखकर कुबेर से काफी धन कर्ज ल‌िया। इस कर्ज से भगवान व‌िष्‍णु के वेंकटेश रुप और देवी लक्ष्मी के अंश पद्मवती ने व‌िवाह क‌िया।
कुबेर से कर्ज लेते समय भगवान ने वचन द‌िया था क‌ि कल‌ियुग के अंत तक वह अपना सारा कर्ज चुका देंगे। कर्ज समाप्त होने तक वह सूद चुकाते रहेंगे। भगवान के कर्ज में डूबे होने की इस मान्यता के कारण बड़ी मात्रा में भक्त धन-दौलत भेंट करते हैं ताक‌ि भगवान कर्ज मुक्त हो जाएं।
भक्तों से म‌िले दान की बदौलत आज यह मंद‌िर करीब 50 हजार करोड़ की संपत्त‌ि का माल‌िक बन चुका है।
Tirupati Temple

पौराणिक वृतांत- एक राक्षस ‘गयासुर’ के कारण गया बना है मोक्ष स्‍थली

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बिहार की राजधानी पटना से करीब 104 किलोमीटर की दूरी पर बसा है गया जिला। धार्मिक दृष्टि से गया न सिर्फ हिन्दूओं के लिए बल्कि बौद्ध धर्म मानने वालों के लिए भी आदरणीय है। बौद्ध धर्म के अनुयायी इसे महात्मा बुद्ध का ज्ञान क्षेत्र मानते हैं जबकि हिन्दू गया को मुक्तिक्षेत्र और मोक्ष प्राप्ति का स्थान मानते हैं।

इसलिए हर दिन देश के अलग-अलग भागों से नहीं बल्कि विदेशों में भी बसने वाले हिन्दू आकर गया में आकर अपने परिवार के मृत व्यकित की आत्मा की शांति और मोक्ष की कामना से श्राद्ध, तर्पण और पिण्डदान करते दिख जाते हैं। लेकिन क्या आप जानते है की गया को मोक्ष स्थली का दर्ज़ा एक राक्षस गयासुर के कारण मिला है? आज हम आपको गयासुर से संबंधित वही पौराणिक वृतांत बता रह है।
पौराणिक वृतांत
पुराणों के अनुसार गया में एक राक्षस हुआ ज‌िसका नाम था गयासुर। गयासुर को उसकी तपस्या के कारण वरदान म‌िला था क‌ि जो भी उसे देखेगा या उसका स्पर्श करगे उसे यमलोक नहीं जाना पड़ेगा। ऐसा व्यक्त‌ि सीधे व‌िष्‍णुलोक जाएगा। इस वरदान के कारण यमलोक सूना होने लगा।
इससे परेशान होकर यमराज ने जब ब्रह‍्मा, व‌िष्णु और शिव से यह कहा क‌ि गयासुर के कारण अब पापी व्यक्त‌ि भी बैकुंठ जाने लगा है इसल‌िए कोई उपाय क‌िज‌िए। यमराज की स्‍थ‌ित‌ि को समझते हुए ब्रह‍्मा जी ने गयासुर से कहा क‌ि तुम परम पव‌ित्र हो इसल‌िए देवता चाहते हैं क‌ि हम आपकी पीठ पर यज्ञ करें।
प्रेत शिला
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गयासुर इसके ल‌िए तैयार हो गया। गयासुर के पीठ पर सभी देवता और गदा धारण कर व‌िष्‍णु स्‍थ‌ित हो गए। गयासुर के शरीर को स्‍थ‌िर करने के ल‌िए इसकी पीठ पर एक बड़ा सा श‌िला भी रखा गया था। यह श‌िला आज प्रेत श‌िला कहलाता है।
गयासुर के इस समर्पण से व‌िष्‍णु भगवान ने वरदान द‌िया क‌ि अब से यह स्‍थान जहां तुम्हारे शरीर पर यज्ञ हुआ है वह गया के नाम से जाना जाएगा। यहां पर प‌िंडदान और श्राद्ध करने वाले को पुण्य और प‌िंडदान प्राप्त करने वाले को मुक्त‌ि म‌िल जाएगी। यहां आकर आत्मा को भटकना नहीं पड़ेगा।

आखिर क्यों खाया था पांडवों ने अपने मृत पिता के शरीर का मांस?

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आज हम आपको महाभारत से जुडी एक घटना बताते है जिसमे पांचो पांडवों ने अपने मृत पिता पाण्डु का मांस खाया था उन्होंने ऐसा क्यों किया यह जानने के लिए पहले हमे पांडवो के जनम के बारे में जानना पड़ेगा। पाण्डु के पांच पुत्र युधिष्ठर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव थे।  इनमे से युधिष्ठर, भीम और अर्जुन की माता कुंती तथा नकुल और सहदेव की माता माद्री थी। पाण्डु इन पाँचों पुत्रों के पिता तो थे पर इनका जनम पाण्डु के वीर्य तथा सम्भोग से नहीं हुआ था क्योंकि पाण्डु को श्राप था की जैसे ही वो सम्भोग करेगा उसकी मृत्यु हो जाएगी। इसलिए पाण्डु के आग्रह पर यह पुत्र कुंती और माद्री ने भगवान का आहवान करके प्राप्त किये थे।

जब पाण्डु की मृत्यु हुई तो उसके मृत शरीर का मांस पाँचों भाइयों ने मिल बाट कर खाया था। उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योकिं स्वयं पाण्डु की ऐसी इच्छा थी। चुकी उसके पुत्र उसके वीर्ये से पैदा नहीं हुए थे इसलिए पाण्डु का ज्ञान, कौशल उसके बच्चों में नहीं आ पाया था।  इसलिए उसने अपनी मृत्यु पूर्व ऐसा वरदान माँगा था की उसके बच्चे उसकी मृत्यु के पश्चात उसके शरीर का मांस मिल बाँट कर खाले ताकि उसका ज्ञान बच्चों में स्थानांतरित हो जाए।
पांडवो द्वारा पिता का मांस खाने के सम्बन्ध में दो मान्यता प्रचलित है।  प्रथम मान्यता के अनुसार मांस तो पांचो भाइयों ने खाया था पर सबसे ज्यादा हिस्सा सहदेव ने खाया था।  जबकि एक अन्य मान्यता के अनुसार सिर्फ सहदेव ने पिता की इच्छा का पालन करते हुए उनके मस्तिष्क के तीन हिस्से खाये। पहले टुकड़े को खाते ही सहदेव को इतिहास का ज्ञान हुआ, दूसरे टुकड़े को खाने पे वर्तमान का और तीसरे टुकड़े को खाते ही भविष्य का। यहीं कारण था की सहदेव पांचो भाइयों में सबसे अधिक ज्ञानी था और इससे उसे भविष्य में होने वाली घटनाओ को देखने की शक्ति मिल गई थी।
शास्त्रों के अनुसार श्री कृष्ण के अलावा वो एक मात्र शख्स सहदेव ही था जिसे भविष्य में होने वाले महाभारत के युद्ध के बारे में सम्पूर्ण बाते पता थी। श्री कृष्ण को डर था की कहीं सहदेव यह सब बाते औरों को न बता दे इसलिए श्री कृष्ण ने सहदेव को श्राप  दिया था की की यदि उसने ऐसा किया तो  मृत्यु हो जायेगी।

सुदर्शन चक्र कितने देवताओं के पास रहा, पढ़े अनूठी जानकारी

LORD KRISHNA EXPLAIN HOW ASHWATTHAMA OBTAINED BRAHMSHEER ASTRA & HIS WILLINGNESS TO OBTAIN SUDARSHAN CHAKRA  (Sauptika Parva - Mahabharat)  LORD KRISHNA... - Lord Krishna - The Essence of Universe - Google+

सभी शस्त्रों में चक्र को छोटा, लेकिन सबसे अचूक अस्त्र माना जाता था। सभी देवी-देवताओं के पास अपने-अपने अलग-अलग चक्र होते थे। उन सभी के अलग-अलग नाम थे। भोलेनाथ के चक्र का नाम भवरेंदु है। विष्णुजी के चक्र का नाम कांता चक्र और देवी का चक्र मृत्यु मंजरी चक्र है। सुदर्शन चक्र भगवान कृष्ण का चक्र है।

दरअसल सुदर्शन चक्र का निर्माण भगवान शंकर ने किया था। निर्माण के बाद 
भगवान शिवशंकर ने इसे श्रीविष्णु को सौंप दिया था। जरूरत पड़ने पर श्रीविष्णु ने इसे देवी पार्वती को प्रदान कर दिया। पार्वती ने इसे परशुराम को दे दिया और भगवान कृष्ण को यह सुदर्शन चक्र परशुराम से मिला। श्रीकृष्ण के पास 
यह सदा के लिए रहा। 

हैहय वंश के राजा कार्तविर्यार्जुन सुदर्शन चक्र के अवतार माने गए। आज भी मान्यता है कि इनकी साधना करने से हर प्रकार की गुम वस्तु मिल जाती है। 
सुदर्शन चक्र के बारे में शास्त्रों में वर्णित है कि वह किसी भी दिशा अथवा किसी भी लोक में जाकर वांछित सामग्री खोज लाने में सक्षम है।

उनकी साधना के लिए दीपक लगाकर पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुंह करके बैठें। अपनी गुम वस्तु की कामना को उच्चारण कर भगवान विष्‍णु के सुदर्शन चक्रधारी रूप का ध्यान करें। चक्र को रक्त वर्ण में ध्याएं एवं इस मंत्र का विश्वासपूर्वक जप करें।

मंत्र :- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान।
यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्‍टं च लभ्यते।।



किसने और क्यों श्रीकृष्ण को दिया था सुदर्शन चक्र


बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि आखिरकार श्रीकृष्ण के पास सुदर्शन चक्र कैसे और क्यूं आया। अर्थात किस तरह उन्हें सुदर्शन चक्र मिला। इस संबंध में हम आपके लिए वी.सावंतजी की किताब युगांधर से कुछ अंश निकालकर लाएं हैं।....सुदर्शन प्राप्ति और उसके प्रथम संचालन का अद्भुत वर्णन... 
कंस वध के बाद श्रीकृष्ण को मथुरा छोड़कर जाना पड़ा था। कंस वध के बाद मथुरा पर शक्तिशाली मगध के राजा जरासंध के आक्रमण बढ़ गए थे। मथुरा पर उस वक्त यादव राजा उग्रसेन का आधिपत्य था।

> श्रीकृष्ण ने सोचा, मेरे अकेले के कारण यादवों पर चारों ओर से घोर संकट पैदा हो गया है। मेरे कारण यादवों पर किसी प्रकार का संकट न हो, यह सोचकर भगवान कृष्ण ने बहुत कम उम्र में ही मथुरा को छोड़कर कहीं अन्य जगह सुरक्षित शरण लेने की सोची। दक्षिण में यादवों के 4 राज्य थे। पहला राज्य आदिपुरुष महाराजा यदु की 4 नागकन्याओं से प्राप्त 4 पुत्रों ने स्थापित किया था। यह राज्य मुचकुन्द ने दक्षिण ऋक्षवान पर्वत के समीप बसाया था। दूसरा राज्य पद्मावत महाबलीश्वरम के पास था। यदु पुत्र पद्मवर्ण ने उसे सह्माद्रि के पठार पर वेण्या नामक नदी के तट पर बसाया था। पंचगंगा नदी के तट पर बसी करवीर नामक वेदकालीन विख्यात नगरी भी इसी राज्य के अंतर्गत आती थी। उस पर श्रंगाल नामक नागवंशीय माण्डलिक राजा का आधिपत्य था। करवीर नगरी को दक्षिण काशी कहा जाता था।
 
उसके दक्षिण में यदु पुत्र सारस का स्थापित किया हुआ तीसरा राज्य क्रौंचपुर था। यहां क्रौंच नामक पक्षियों की अधिकता थी इसीलिए इसे क्रौंचपुर कहा जाता था। वहां की भूमि लाल मिट्टी की और उर्वरा थी। इस राज्य को 'वनस्थली' राज्य भी कहा जाता था। चौथा राज्य यदु पुत्र हरित ने पश्‍चिमी सागर तट पर बसाया था। इन चारों राज्यों में अमात्य विपृथु ने पहले ही दूतों द्वारा संदेश भिजवाए थे कि श्रीकृष्ण पधार रहे हैं।
 
पद्मावत राज्य में वेण्या नदी के तट पर भगवान परशुराम निवास करते थे। महेंद्र पर्वत से अर्थात पूर्व समुद्र से परशुराम नौकाओं में से अपने अनेक शिष्यों सहित पद्मावत राज्य में आए थे। संपूर्ण आर्यावर्त में मंत्र सहित ब्रह्मास्त्र विद्या देने की क्षमता रखने वाले इने-गिने पुरुषों में वे सर्वश्रेष्ठ थे। उनके चमत्कार और शक्ति के किस्से सभी को मालूम थे। उनके शिष्य आर्यावर्त में सर्वत्र फैले हुए थे। उनके प्रत्येक राज्य में अनेक आश्रम थे।
 
दाऊ से विचार-विमर्श कर श्रीकृष्‍ण ने निर्णय लिया कि सबसे पहले उनसे ही मिला जाए। उनसे मिलने के लिए कई नदियों और अरण्यों को लांघते हुए, समीपवर्ती विदर्भ राज्य की सीमा पर गोदावरी नदी पार करते हुए वे सभी अश्मक राज्य में आ गए। श्रीराम ने जहां निवास किया था, उस कुंतल राज्य के जनस्थान पर्वत नासिक परिसर के बाईं ओर से भीमा नदी को पार करते हुए वे सभी पद्मावत राज्य की सीमा में दाखिल हो गए।

परशुराम के आश्रम में श्रीकृष्‍ण : कृष्णा और कोयना के संगम में सभी ने स्नान किया। फिर करहाटक तीर्थक्षेत्र को पार कर वे वेण्या नदी के परिसर में आ गए। सभी के स्वागत के लिए परशुराम द्वारा भेजे गए कंधों पर चमकते हुए परशु लिए दो जटाधारी उनके पास आ खडे हुए। यहां तक की यात्रा में लगभग डेढ़ माह बीत चुका था। आश्रम के प्रदेश द्वार पर भृगुश्रेष्ठ परशुराम और सांदीपनि उनके स्वागत के लिए खड़े थे। दोनों ने श्रीकृष्ण और दाऊ को गले लगा लिया। आश्रम में परशुराम ने सभी को फलाहार खिलाया और सभी के रुकने और विश्राम करने की व्यवस्था की।
 
विश्रामआदि के बाद परशुराम ने कहा कि अब मेरी सलाह है कि तुम अपने साधियों के साथ नैसर्गिक संरक्षण प्राप्त गोमंतक पर्वत पर चले जाओ। तुम्हारे लिए मैंने अब तक एक अमूल्य उपहार संभालकर रखा है। अपने हाथों से उसे सौंपकर मैं उससे मुक्त होना चाहता हूं। अन्य किसी को वह मैं दे नहीं सकता किसी योग्य व्यक्ति का ही इंतजार कर रहा था लेकिन अभी योग्य समय नहीं आया। अभी तुम गोमांतक पर्वत पर जाओ।
 
श्रीकृष्ण पहुंच गए गोमांतक पर्वत : उल्लेखनीय है कि गोमांतक पर्वत पर रहने वाले गरूड़ के पुत्र थे– वेन्तेय। वे किसी बीमारी की वजह से पूरी तरह अपंग हो गए थे। जब वे कृष्ण से मिले तो उनमें एक नया संचार हो गया। उनकी बीमारी पूरी तरह ठीक हो गई। गोमांतक पर्वत पार करके सोमनाथ का ज्योतिर्लिंग था और उसके पार लगभग 32 किलोमीटर दूर कुशस्थली थी जिसे बाद में द्वारिका कहा गया।
 
यहां पर दाऊ और श्रीकृष्ण ने अपने कुछ साथियों सहित संपूर्ण पर्वत को घूम-घूमकर देखा। जंगल का मुआयना किया। गोमांतक पर्वत यादवों के एक पड़ाव व एक सैन्य शिविर में बदल गया। यहां आए हुए यादवों को अभी एक माह ही हुआ था कि जरासंध की सेना वहां आ धमकी। दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। अंत में हार और हताशा के कारण जरासंध ने गोमंतक पर्वत के चारों ओर आग लगाने का आदेश दिया। बाद में यादवों ने दक्षिण देश की सेना से हाथ मिलाया और जरासंध व शिशुपाल पर अचानक एक शक्तिशाली आक्रमण किया। मगध और चेदियों के शस्त्र संभालने के पहले ही युद्ध आरंभ हो गया। अंतत: सभी भाग गए और जहां जरासंध और शिशुपाल ने पड़ाव डाला था, वहीं यादवों की सेना ने पड़ाव डालकर विश्राम किया।
 
परशुराम पधारे गोमांतक पर्वत पर : इस विजय के बाद एक दिन श्रीकृष्‍ण अपने भाई दाऊ और साथी विपृथु और कुछ गिने-चुने यादवों के साथ परशुराम से मिलने गए और उनको जरासंध के आक्रमण का हाल सुनाया। श्रीकृष्ण ने कहा कि उस निर्दयी ने गोमंतक जैसा अद्भुत पर्वत जला डाला। तब परशुराम ने कहा- हे श्रीकृष्ण, मुझे तुम्हारी आंखों में अपना उत्तराधिकारी दिखाई दिया है अत: में आज तुमको वह उपहार सौंपता हूं जिसके तुम ही एकमात्र योग्य हो और जिसके बारे में मैं तुम्हें अपनी पहली मुलाकात में बताया था। अब वह समय आ गया है कि मैं तुम्हें वह सौंप दूं।
 
तब परशुराम ने धीरे-धीरे अपनी आंखें बंद कर लीं और कुछ मंत्र बुदबुदाने लगे। ऐसे मंत्र जो पहले कभी श्रीकृष्‍ण ने भी नहीं सुने थे। तभी तेज प्रकाश उत्पन्न हुआ और संपूर्ण आश्रम प्रकाश से भर गया। दाऊ, श्रीकृष्ण आदि सभी की आंखें चौंधिया गईं। जब प्रकाश मध्यम हुआ, तब उन्होंने देखा कि परशुराम की दाहिनी तर्जनी पर 12 आरों वाला वज्रनाभ गरगर घूमने वाला सुदर्शन चक्र घूम रहा है। उसे देखकर सभी चकित होकर भयभीत भी हो गए। परशुराम की तर्जनी पर घूमता चक्र स्पष्ट दिखाई दे रहा था। परशुराम ने नेत्र संकेत से श्रीकृष्‍ण को नजदीक बुलाया और कान में कहा, प्रत्यक्ष ही देखो, इस सुदर्शन चक्र के प्रभाव को। उन्होंने मंत्र बुदबुदाते हुए उस तेज चक्र को प्रक्षेपित कर दिया और वह तेज गति से वेण्या नदी को पार कर आंखों से ओझल हो गया। कुछ ही देर बाद वह पुन: लौटता हुआ दिखाई दिया और वह उसी वेग से लौटकर पुन: तर्जनी अंगुली पर स्थिर हो गया। परशुराम ने पुन: कुछ मंत्र बुदबुदाया और फिर वह जैसे प्रकट हुआ था, वैसे ही लुप्त हो गया।
 
तब परशुराम ने श्रीकृष्ण को आचमन कराकर उनको सुदर्शन की दीक्षा देकर कहा, आज से मेरे इस सुदर्शन चक्र के अधिकारी तुम हो गए हो। हे वासुदेव, इसकी जन्मकथा तो तुम जानते ही हो। सबसे पहले यह शिव के पास था। इससे त्रिपुरासुर की जीवनलीला समाप्त कर दी गई थी। उसके बाद यह विष्णु...ऐसा बोलकर परशुराम मुस्कराने लगे। विष्णु क्या हैं? यह मैं तुम्हें क्या बताऊं वासुदेव श्रीकृष्ण। तुम जानते ही हो। विष्णु के बाद यह चक्र अग्नि के पास था। अग्नि ने वरुण को दिया और वरुण से यह मुझे प्राप्त हुआ है। हे वासुदेव, बलराम के हल से इस धरती में बीज बोने हैं और इस सुदर्शन चक्र से इस धरती की रक्षा करनी है। आज से यह तुम्हारा हुआ जिम्मेदारी से इसका उपयोग करना।

जब पहली बार श्रीकृष्ण ने किया सुदर्शन चक्र का प्रयोग..

श्रीकृष्‍ण और दाऊ के मुख से सुदर्शन प्राप्त करने वाली घटना सुनकर सत्यकि तो सुन्न ही रह गया था। यादवों के तो हर्ष का ठिकाना नहीं रहा। उत्सव जैसा माहौल था। अत्यंत हर्ष के साथ दो दिनों तक भृगु आश्रम में रहने के बाद क्रौंचपुर के यादव राजा सारस के आमंत्रण पर उनके राज्य के लिए निकल पड़े। उनके सेनापति उनकी एक टुकड़ी के साथ उनका मार्गदर्शन कर रहे थे। राजा सारस ने एक विशेष राज्यसभा का आयोजन किया।
राजा सारस ने सभी अतिथियों को सालंकृत, सुशोभि‍त छत्र और अश्वों सहित राजरक्ष उपहार में दिए थे। कृष्ण को अपने अश्व दारुक, शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक अश्‍वों की याद आ गई। रथों को देखकर उनको अपने गरूड़ध्वज रथ की भी याद आ गई। वहीं पर अब कृष्‍ण को लगने लगा था कि उनको मथुरा लौटना चाहिए। अब किसी भी प्रकार का भय नहीं रहा क्योंकि अब सुदर्शन चक्र जो है। मुझे मथुरा लौटकर अपने बंधु बांधवों आदि की रक्षा करनी है। श्रीकृष्‍ण ने वहां से विदा होने से पहले राजा सारस ने सहायता करने का वचन लिया। 
 
वहां से वे ताम्रवर्णी नदी पार कर घटप्रभा के तट पर आ गए। वहां एक सैन्य शिविर में सत्यकि के साथ मथुरा जाने की योजना बनाने लगे। यात्रा में आने वाली रुकावटों पर चर्चा करने लगे। इस महत्वपूर्ण मीटिंग में ‍दक्षिण देश के चारों राज्यों के सेनापति भी शामिल थे। सभी अपनी-अपनी राय रख रहे थे। श्रीकृष्ण सभी की सुन रहे थे लेकिन उनका मन तो सुदर्शन चक्र के मंत्र में ही खोया हुआ था। जबसे उनको यह प्राप्त हुआ तब से उनकी मानसिक दशा बदल चुकी थी। वे इसकी शक्ति, कार्यों और इसके उचित समय पर इस्तेमाल करने के बारे में सोचने लगे थे। अब उनकी दृष्टि दूर तक भविष्य में उड़ान भरने लगी थी। शक्ति का यह आभास देह, मन और काल से भी परे था। वे अब साधारण मानव नहीं थे।
 
श्रीकृष्ण सुदर्शन के बारे में सोच रहे थे तभी गुप्तचर विभाग का एक प्रमुख हट्टे-कट्टे नागरिक को पकड़कर उनके सामने ले आया। नागरिक ने करबद्ध अभिनन्नक कर कहा- मैं करवीर का नागरिक हूं आपसे न्याय मांगने आया हूं। हे श्रीकृष्ण महाराज! पद्मावत राज्य के करवीर नगर का राजा श्रगाल हिंसक वृत्ति का हो गया है। वह किसी की भी स्त्री, संपत्ति और भूमि को हड़प लेता है। कई नागरिक उसके इस स्वभाव से परेशान होकर राज्य छोड़ने पर मजबूर हैं। क्या मुझे भी राज्य छोड़ना पड़ेगा?
 
श्रीकृष्ण उठकर उसके समीप गए और उससे कहा, 'हे श्रेष्ठ मैं किसी राज्य का राजा नहीं हूं। न में किसी राजसिंहासन का स्वामी हूं फिर भी मैं तुम्हारी व्यथा समझ सकता हूं।' वह नागरिक श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़ा और सुरक्षा की भीख मांगने लगा। तब श्रीकृष्ण ने सेनापति सत्यकि की ओर मुखातिब होकर कहा कि हम करवीर से होते हुए मथुरा जाएंगे।
 
श्रीकृष्ण और उनकी सेना करवीर की ओर चल पड़ी। पद्मावत राज्य के माण्डलिक श्रगाल का पंचगंगा के तट पर बसा करवीर नामक छोटा सा राज्य था। करवीर के दुर्ग पर यादवों की सेना ने हमला कर दिया। दुर्ग को तोड़कर सेना अंदर घुस गई। श्रगाल और यादवों की सेना में घनघोर युद्ध हुआ। श्रीकृष्ण राजप्रासाद तक पहुंच गए। ऊपर श्रगाल खड़ा था और नीचे श्रीकृष्ण। श्रगाल ने चीखकर श्रीकृष्ण को कहा, यह मल्लों की नगरी करवीर है, तू यहां से बचकर नहीं जा सकता। मैं ही यहां का सम्राट हूं। 
 
तभी कृष्ण का मन मचल गया उस सुदर्शन चक्र का प्रयोग करने का। अब मौका था कि इसे आजमाया जाए। उन्होंने मंत्र बुदबुदाया और चमत्कार हुआ। उनकी तर्जनी अंगुली पर गरगर करने लगा था वह प्रलयंकारी चक्र और श्रीकृष्ण ने सुदर्शन का पहला प्रक्षेपण कर दिया। पलक झपकने से पहले ही वह श्रगाल का सिर धड़ से अलग कर पुन: अंगुली पर विराजमान हो गया। दोनों ओर की सेनाएं देखती रह गईं और चारों तरफ सन्नाटा छा गया। श्रीकृष्ण को भी समझ में नहीं आया। सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि सभी आवाक् रह गए। आश्चर्य कि चक्र में रक्त की एक बूंद भी नहीं लगी हुई थी।
 
करवीर नगरी अब श्रगाल से मुक्त हो गई थी। श्रीकृष्ण ने श्रगाल के पुत्र शुक्रदेव को वहां का राजा नियुक्त किया तथा उसको उपदेश देकर वे वहां से चले गए। वहां के बाद कुंतल, अश्मक जनपदों को पीछे छोड़ते हुए यादवों की सेना ने विदर्भ में पड़ाव डाला। जहां पड़ाव डाला था वहां से कुछ योजन दूर पर ही कौण्डिन्यपुर था, जहां के राजा भीष्मक जरासंध से हाथ मिला चुका था। उनका पुत्र रुक्मी था, जो शिशुपाल का मित्र था। रुक्मी की बहन ही रुक्मिणी थी। उसके और भी भाई थे।
 
यहां से चलने के बाद एक माह की कठिन यात्रा के बाद यादव सेना दण्डकारण्य पार कर अवंती राज्य के भोजपुर नगर पहुंच गई। यह कुंति बुआ के पालक पिता राजा कुंतिभोज का नगर था। यहां अचानक ही श्रीकृष्ण की गर्ग मुनि से भेंट हुई। वे पश्‍चिम सागर तट पर स्थित अजितंजय नगर के यवन राजा से मिलकर आ रहे थे। श्रीकृष्ण के पास इसी नाम (अजितंजय) से एक धनुष भी था। दूर गांधार, काब्रा नदी के प्रदेश के लोगों को 'यवन' कहा जाता था। 
 
अंतत: कुछ दिन कुंतिभोज के नगर में विश्राम करने के बाद वे यादव सेना सहित मथुरा पहुंच गए। यहां महाराजा उग्रसेन, तात वसुदेव, भ्राता ऊधो और अन्य विशिष्ट यादवों ने उनका स्वागत किया। श्रीकृष्ण के मथुरा पहुंचने से पहले ही जरासंध पर उनकी विजय का समाचार भी पहुंच गया था। वहां उन्होंने वसुदेव को उनकी बहन कुंति और उनके पुत्र पांडवों की रक्षा का वचन दिया। यहीं रहकर उन्होंने विदर्भ राज्य की पुत्री रुक्मिणी का अपहरण कर उसके साथ विवाह भी किया।

धनतेरस क्यों मनाया जाता है, पढ़ें विशेष जानकारी

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कार्तिक मास की कृष्ण त्रयोदशी को कहते हैं। इस दिन घर के द्वार पर तेरह दीपक जलाकर रखे जाते हैं। यह त्योहार दीपावली आने की पूर्व सूचना देता है। इस दिन नए बर्तन खरीदना शुभ माना जाता है। मृत्यु के देवता यमराज और भगवान धनवंतरी की पूजा का महत्व है।

धनतेरस का त्योहारक्यों मनाया जाता हैभारतीय संस्कृति में स्वास्थ्य का स्थान धन से ऊपर माना जाता रहा है। यह कहावत आज भी प्रचलित है कि 'पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में माया' इसलिए दीपावली में सबसे पहले धनतेरस को महत्व दिया जाता है। जो भारतीय संस्कृति के हिसाब से बिल्कुल अनुकूल
है।

शास्त्रों में वर्णित कथाओं के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन भगवान धनवंतरी अपने हाथों में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए। मान्यता है कि भगवान धनवंतरी विष्णु के अंशावतार हैं। संसार में चिकित्सा विज्ञान के विस्तार और प्रसार के लिए ही भगवान विष्णु ने धनवंतरी का अवतार लिया था। भगवान धनवंतरी के प्रकट होने के उपलक्ष्य में ही धनतेरस का त्योहार मनाया जाता है।

इस दिनक्या खास करें- इस दिन अपने घर की सफाई अवश्य करें। इस दिन अपने सामर्थ्य अनुसार किसी भी रूप में चांदी एवं अन्य धातु खरीदना अति शुभ है। धन संपत्ति की प्राप्ति हेतु कुबेर देवता के लिए घर के पूजा स्थल पर दीप दान करें एवं मृत्यु देवता यमराज के लिए मुख्य द्वार पर भी दीप दान करें।

2 दिन मनेगी शरद पूर्णिमा, जानिए क्यों अमृत बन जाती है इस रात को बनी खीर

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दशहरे से शरद पूर्णिमा तक चंद्रमा की चांदनी विशेष गुणकारी, श्रेष्ठ किरणों वाली और औषधियुक्त होती है। कहा जाता है कि लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी।
इस बार 23 और 24 अक्टूबर यानी दो दिन शरद पूर्णिमा मनाई जाएगी। चांदनी रात में 10 से मध्यरात्रि 12 बजे के बीच कम वस्त्रों में घूमने वाले व्यक्ति को ऊर्जा प्राप्त होती है। सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आश्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और बसंत में निग्रह होता है।
इस दौरान खीर बनाकर उसे खुले आसमान के नीचे रखने का विधान किया गया है। माना जाता है कि इससे खीर में चंद्रमा का अमृत आ जाता है। यह तो है अध्यात्मिक बात, लेकिन इसका एक वैज्ञानिक पहलू भी है।
एक अध्ययन के अनुसार, दुग्ध में लैक्टिक अम्ल और अमृत तत्व होता है। यह तत्व किरणों से अधिक मात्रा में शक्ति का शोषण करता है। चावल में स्टार्च होने के कारण यह प्रक्रिया और आसान हो जाती है। इसी कारण ऋषि-मुनियों ने शरद पूर्णिमा की रात्रि में खीर को खुले आसमान के नीचे रखने और अगले दिन खाने का विधान तय किया था। यह परंपरा विज्ञान पर आधारित है।
कितने फायदे वाली है यह रात
हर किसी को कम से कम 30 मिनट तक शरद पूर्णिमा की रात में चंद्रमा के सामने रहने की कोशिश करनी चाहिए। रात 10 से 12 बजे तक का समय इसके लिए बेहद उपयोगी बताया गया है। शरद पूर्णिमा की रात दमा रोगियों के लिए वरदान बनकर आती है। इस रात्रि में दिव्य औषधि को खीर में मिलाकर उसे चांदनी रात में रखकर प्रात: 4 बजे सेवन किया जाता है। रोगी को रात्रि जागरण करना पड़ता है और औ‍षधि सेवन के पश्चात 2-3 किमी पैदल चलना लाभदायक रहता है।
अधिक लाभ के लिए ये करें
आंखों की रोशनी बढ़ाने के लिए दशहरे से शरद पूर्णिमा तक हर रोज रात में 15 से 20 मिनट तक चंद्रमा को देखकर त्राटक करें ।
जो इन्द्रियां शिथिल हो गई हैं, उन्हें पुष्ट करने के लिए चंद्रमा की चांदनी में रखी खीर खाएं।
शरद पूर्णिमा अस्थमा के लिए वरदान की रात होती है। रात को सोना नहीं चाहिए। रात भर रखी खीर का सेवन करने से दमा खत्म होता है।

पीपल की पूजा से शनि देव कैसे होते हैं शांत, पढ़ें पौराणिक कहानी

Shani Dev - The Hindu Saturn by VachalenXEON.deviantart.com on @DeviantArt
हिंदू धर्म में पीपल की पूजा का विशेष महत्व है। पीपल एकमात्र पवित्र देववृक्ष है, जिसमें सभी देवताओं के साथ ही पितरों का भी वास रहता है। श्रीमद्भगवदगीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणाम, मूलतो ब्रहमरूपाय मध्यतो विष्णुरूपिणे, अग्रत: शिवरूपाय अश्वत्थाय नमो नम:। अर्थात मैं वृक्षों में पीपल हूं।
पीपल के मूल में ब्रह्मा जी, मध्य में विष्णु जी तथा अग्र भाग में भगवान शिव जी साक्षात रूप से विराजित हैं। स्कंदपुराण के अनुसार पीपल के मूल में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण, पत्तों में भगवान श्री हरि और फलों में सभी देवताओं का वास है। इसलिए पीपल को पूज्यनीय पेड़ माना जाता है।
वैज्ञानिक कारण
सभी वृक्ष दिन के समय में सूर्य की रोशनी में कार्बन डाइ आक्साईड ग्रहण करके अपने लिए भोजन बनाते हैं। वहीं, रात को सभी वृक्ष ऑक्सीजन लेते हैं और कार्बन-डाइआक्साईड छोड़ते हैं। इसी वजह से रात के समय में पेड़ों के नीचे सोने से मना किया जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार पीपल का पेड़ 24 घंटों में सदा ही आक्सीजन छोड़ता है इसलिए यह मानव उपकारी वृक्ष है। संभवतः इसीलिए पीपल को पूज्य मानकर सदियों से उसकी पूजा होती चली आ रही है।
शनि की पीड़ा से मुक्ति
माना जाता है कि पीपल के पड़े की पूजा करने से शनि देव प्रसन्न होते हैं और जिन लोगों को शनि दोष होता है उन्हें इसके कुप्रभाव से मुक्ति मिल जाती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक समय स्वर्ग पर असुरों ने कब्जा कर लिया था।
कैटभ नाम का राक्षस पीपल वृक्ष का रूप धारण करके यज्ञ को नष्ट कर देता था। जब भी कोई ब्राह्मण समिधा के लिए पीपल के पेड़ की टहनियां तोड़ने पेड़ के पास जाता, तो यह राक्षस उसे खा जाता। ऋषिगण समझ ही नहीं पा रहे थे कि ब्राह्मण कुमार कैसे गायब होते चले जा रहे हैं।
तब उन्होंने शनि देव से सहायता मांगी। इस पर शनिदेव ब्राह्मण बनकर पीपल के पेड़ के पास गए। कैटभ ने शनि महाराज को पकड़ने की कोशिश की, तो शनिदेव और कैटभ में युद्ध हुआ। शनि ने कैटभ का वध कर दिया। तब शनि महाराज ने ऋषियों को कहा कि आप सभी भयमुक्त होकर शनिवार के दिन पीपल के पड़े की पूजा करें, इससे शनि की पीड़ा से मुक्ति मिलेगी।

दूसरी कथा के अनुसार, 
ऋषि पिप्लाद के माता-पिता की मृत्यु बचपन में ही हो गई थी। बड़े होने इन्हें पता चला कि शनि की दशा के कारण ही इनके माता-पिता को मृत्यु का सामना करना पड़ा। इससे क्रोधित होकर पिप्लाद ने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर घोर तप किया।
इससे प्रसन्न होकर जब ब्रह्मा जी ने उनसे वर मांगने को कहा, तो पिप्लाद ने ब्रह्मदंड मांगा और पीपल के पेड़ में बैठे शनि देव पर ब्रह्मदंड से प्रहार किया। इससे शनि के पैर टूट गए। शनि देव दुखी होकर भगवान शिव को पुकारने लगे।
भगवान शिव ने आकर पिप्पलाद का क्रोध शांत किया और शनि की रक्षा की। तभी से शनि पिप्पलाद से भय खाने लगे। पिप्लाद का जन्म पीपल के वृक्ष के नीचे हुआ था और पीपल के पत्तों को खाकर इन्होंने तप किया था इसलिए माना जाता है कि पीपल के पड़े की पूजा करने से शनि का अशुभ प्रभाव दूर होता है।

भस्मासुर को शिव का वरदान

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पूर्व काल में भस्मासुर नाम का एक राक्षस हुआ करता था। उसको समस्त विश्व पर राज करना था। अपने इसी प्रयोजन को सिद्ध करने हेतु वह शिव की कठोर तपस्या करता है। अंत में भोलेनाथ उसकी बरसों की गहन तपस्या से प्रसन्न हो कर उस के सामने प्रकट होते हैं।
शिव उसे वरदान मांगने के लिए कहते हैं। तब भस्मासुर अमरत्व का वरदान मांगता है। अमर होने का वरदान सृष्टि विरुद्ध विधान होने के कारण शंकर भगवान उसकी यह मांग नकार देते हैं। तब भस्मासुर अपनी मांग बदल कर यह वरदान मांगता है की वह जिसके भी सिर पर हाथ रखे वह भस्म हो जाए।
शिवजी उसे यह वरदान दे देते हैं। तब भस्मासुर शिवजी को ही भस्म करने उसके पीछे दौड़ पड़ता है। जैसे तैसे अपनी जान बचा कर शंकर भगवान विष्णु की शरण में जाते हैं और उन्हे पूरी बात बताते हैं। भगवान विष्णु फिर भस्मासुर का अंत करने के लिए मोहिनी रूप रचते हैं।
भस्मासुर जब भटक भटक कर शिवजी को भस्म करने के लिए ढूंढ रहा होता है तब मोहीनी उसके समीप प्रकट हो आती है। उसकी सुंदरता से मुग्ध हो कर भस्मासुर वहीं रुक जाता है। और मोहिनी से विवाह का प्रस्ताव रख देता है। मोहिनी जवाब में कहती है कि- वह सिर्फ उसी युवक से विवाह करेगी जो उसकी तरह नृत्य में प्रवीण हो।
अब भस्मासुर को नृत्य आता नहीं था तो उसने इस कार्य में मोहिनी से मदद मांगी। मोहिनी तुरंत तैयार हो गयी। नृत्य सिखाते-सिखाते मोहिनी ने अपना हाथ अपने सिर पर रखा और उसकी देखा-देखी भस्मासुर भी शिव का वरदान भूल कर अपना ही हाथ अपने सिर पर रख बैठा और खुद ही भस्म हो गया। इस तरह विष्णु भगवान की सहायता से भोलेनाथ की विकट समस्या का हल हो जाता है।
इसके उपरान्त ही भगवान् शंकर जी ने विष्णु जी को वरदान दिया की त्रेता युग में उनके भक्त के रूप में पृथ्वी पर जनम लेंगे और वही हुआ जिन्हे हम हनुमान जी के नाम के नाम से जानते हैं,
जो राम के सच्चे भक्त हैं 
जय श्री राम
Hanuman - Radiating Ram Ram Ram - Complete Devotion Surrender

Tuesday, October 23, 2018

क्या कहते हैं सात फेरों के सात वचन


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क्या कहते हैं सात फेरों के सात वचन




वैसे तो वैदिक संस्कृति के अनुसार जातक के जन्म से लेकर मरणोपरांत तक सोलह संस्कारों का निबाह किया जाता है। इन्हीं संस्कारों में एक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है विवाह संस्कार। विवाह दरअसल एक ऐसी संस्था है जिससे समाज की प्रथम इकाई यानि कि परिवार का आरंभ होता है। विवाह के बिना मनुष्य अधूरा माना जाता है। हिंदूओं में विवाह के दौरान आप अक्सर देखते हैं कि वर वधु अग्नि के चारों और चक्कर लगाकर फेरे लेते हैं। सात फेरे हर फेरे के साथ ब्राह्मण मंत्रोच्चारण करता है और वर वधु से एक वचन लेता है। लेकिन यह मंत्र संस्कृत में होते हैं जिस कारण बहुत से लोग इनके अर्थ से अंजान रहते हैं। तो आइये आपको बताते हैं कि विवाह के दौरान वर-वधू द्वारा लिये जाने वाले सात वचन कौनसे हैं और उनके मायने क्या हैं।



सात फेरों सात वचन



सात फेरों के सात वचनों के बगैर हिंदुओं में विवाह को मान्यता नहीं मिलती। ना ही कोई विवाह इसके बगैर संपूर्ण होता है। विवाह के बाद ही कन्या वर के बांयी और यानि वाम अंग में बैठती है इसके लिये कन्या वर से सात वचन लेती है जो इस प्रकार हैं:-


पहला वचन
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी।।

यह पहला वचन अथवा शर्त होती है जो कन्या वर से मांगती है। इसमें वह कहती है कि यदि आप कभी किसी तीर्थयात्रा पर जाएं तो मुझे भी अपने साथ लेकर चलेंगें, व्रत-उपवास या फिर अन्य धार्मिक कार्य करें तो उसमें मेरी भी सहभागिता हो और जिस प्रकार आज आप मुझे अपने वाम अंग बैठा रहे हैं उस दिन भी आपके वाम अंग मुझे स्थान मिले। यदि यह आपको स्वीकार है तो मैं आपेक बांयी और आने को तैयार हूं। कुल मिलाकर इसका अर्थ यही है कि किसी भी प्रकार के धार्मिक कार्य में पति के साथ पत्नि का होना भी जरुरी है।

दूसरा वचन
पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम ।।

कन्या वर से अपने दूसरे वचन में कहती है कि जैसे आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी तरह मेरे माता-पिता भी आपके माता-पिता होंगें अर्थात अपने माता-पिता की तरह ही आप मेरे माता-पिता का सम्मान करेंगें और मेरे परिवार की मर्यादानुसार धर्मानुष्ठान कर ईश्वर को मानते रहें तो मैं आपके वामांग आने को तैयार हूं। आप वर्तमान में अपने संबंधो में झांक कर देखें कि क्या आप इस वचन का पालन करते हैं।



तीसरा वचन

जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्या:

वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं।।



हर व्यक्ति के जीवन में शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढावस्था और वृद्धावस्था आदि पड़ाव आते हैं विवाह की उचित उम्र युवावस्था की होती है कन्या भी अपनी तीसरी शर्त यानि तीसरे वचन में इसका खयाल रखते हुए वर से कहती है कि यदि आप युवा, प्रौढ़ और वृद्धावस्था यानि जीवन भर मेरा ध्यान रखेंगें, मेरा पालन करते रहेंगें यदि आपको यह मंजूर है तो मैं आपके वामांग आना स्वीकार करती हूं।



चौथा वचन
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं।।

जाहिर सी बात है जब तक जातक का विवाह नहीं होता वह घर-परिवार की चिंताओं से मुक्त माना जाता है भले ही उसके कंधों पर पूरे परिवार का भार आ चुका हो लेकिन विवाह से पहले उसे इन जिम्मेदारियों से आजाद ही माना जाता है। अपने चौथे वचन में कन्या इसी का अहसास दिलाती है कि विवाहोपरांत आप जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते और भविष्य में परिवार की सभी जरुरतों को पूरा करने का दायित्व आप पर रहेगा। यदि आप इसके लिये सक्षम हैं तो मैं आपके वामांग आने के लिये तैयार हूं। इसलिये पारंपरिक विवाह में माता पिता भी रिश्ता तय करने से पहले वर पक्ष से पूछते हैं कि लड़का करता क्या है। इसका सीधा सा तात्पर्य है कि वह अपने पैरों पर खड़ा है या नहीं। ताकि परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह कर सके।

पांचवां वचन
स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या।।

यह वचन भी कन्या के लिये बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। अपने इस पांचवे वचन में कन्या वर से मांग करती है किसी भी प्रकार के कार्य, लेन-देन आदि में खर्च करते समय मुझसे सलाह-मशविरा जरुर करेंगें। यदि मंजूर है तो मैं भी आपके बांयी और आने को तैयार हूं। यह वचन महिला को वास्तव में बराबरी का दर्जा दिलाने और विवाहोपरांत उसके अधिकार को रेखांकित करता है लेकिन असल में इसका पालन कितने लोग करते हैं यह सभी विवाहित जातक अपने जीवन में झांक कर जरुर देखें।

छठा वचन
न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम ।।

यह वचन भी कन्या के सम्मान और उसकी प्रतिष्ठा को रेखांकित करता है अपनी छठी शर्त में कन्या वर से कहती है यदि वह अपनी सहेलियों, स्त्रियों, परिवार या आस पास अन्य कोई मौजूद हो तो सबके सामने उसका कभी भी अपमान नहीं करेंगें और दुर्व्यसनों (बुरी आदतें जैसे कि शराब, जुआ इत्यादि) से दूर रहेंगें। यदि मेरी यह शर्त आपको मंजूर है तो मैं आपके बांयी और आने को तैयार हूं। लेकिन ऐसे मामले भी देखने को मिलते हैं जब विवाहोपरांत पति इस वचन की अनदेखी करने लगते हैं और जरा सा मौका मिलते ही सबके सामने अपनी पत्नि का अपमान करते हैं। दुर्व्यसनों का सेवन करने वालों की संख्या तो बहुत ही अधिक मिल जायेगी।

सातवां वचन
परस्त्रियं मातृसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या।।

यह कन्या का अंतिम वचन है जिसे वह वर से मांगती है इसमें वह कहती है कि दूसरी स्त्रियों को आप माता समान समझेंगें अर्थात पति-पत्नि के रुप में हमारा जो प्रेम संबंध विकसित हुआ है इसमें किसी और को भागीदार नहीं बनाएंगें। यदि आपको मेरा यह वचन स्वीकार है तो ही मैं आपके वामांग आ सकती हूं।







कुछ वचनों में समानता है तो कुछ में भिन्नता लेकिन लड़के की ओर से भी सात ही वचन वधु से भी मांगे जाते हैं।

  1. पहला वचन देते हुए कन्या कहती है कि तीर्थ, व्रत, यज्ञ, दान आदि किसी भी प्रकार के धार्मिक कार्यों में मैं आपके वामांग रहूंगी।
  2. दूसरा वचन देती है कि आपके परिवार के बच्चे से लेकर बड़े बुजूर्गों तक सभी परिजनों की देखभाल करूंगी और जो भी जैसा भी मिलेगा उससे संतुष्ट रहूंगी।
  3. तीसरे वचन में कन्या कहती है मैं प्रतिदिन आपकी आज्ञा का पालन करूंगी और समय पर आपको आपके पसंदीदा व्यजन तैयार करके आपको दिया करुंगी।
  4. मैं स्वच्छता पूर्वक अर्थात स्नानादि कर सभी श्रृंगारों धारण कर मन, वचन और कर्म से शरीर की क्रिया द्वारा क्रीडा में आपका साथ दूंगी। यह कन्या वर को चौथा वचन देती है।
  5. अपने पांचवे वचन में वह वर से कहती है कि मैं आपके दुख में धीरज और सुख में प्रसन्नता के साथ रहूंगी और तमाम सुख- दु:ख में आपकी साथी बनूंगी और कभी भी पर पुरुष की ओर गमन नहीं करुंगी।
  6. छठा वचन देते हुए कन्या कहती है कि मैं सास-ससुर की सेवा, सगे संबंधियों और अतिथियों का सत्कार और अन्य सभी काम सुख पूर्वक करूंगी। जहां आप रहेंगे मैं आपके साथ रहूंगी और कभी भी आपके साथ किसी प्रकार का धोखा नहीं करुंगी अर्थात आपके विश्वास को नहीं तोड़ूंगी।
  7. सातवें वचन में कन्या कहती है कि धर्म, अर्थ और काम संबंधी मामलों में मैं आपकी इच्छा का पालन करुंगी। अग्नि, ब्राह्मण और माता-पिता सहित समस्त संबधियों की मौजूदगी में मैं आपको अपना स्वामी मानते हुए अपना तन आपको अपर्ण कर रही हूं।




विवाह में फेरे या वचन सात ही क्यों



संख्या सात की महिमा बहुत व्यापक है जिसका विवरण बहुत विस्तृत हो सकता है लेकिन संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है विवाह में फेरों के दौरान सात फेरे सात वचन अर्थात सप्तपदी का महत्व बहुत अधिक इसलिये माना जाता है क्योंकि सात की संख्या बहुत शुभ मानी जाती है। संगीत में सात ही सुर होते हैं, वहीं बारिश की बूंदों के बाद प्रकृति की रंगीन छटा बिखेरते इंद्रधनुष में रंग भी सात होते हैं, समुद्र भी सात मान जाते हैं, सात ही ऋषि भी माने जाते हैं जिससे तारों के समूह को सप्तऋषि भी संबोधित किया जाता है। यह सब पारंपरिक मूल्य हैं जिनका पालन विभिन्न संस्कारों में पीढी दर पीढी होते आ रहा है। हालाकिं दौर के साथ-साथ वर्तमान में कुछ परंपराएं और मूल्य भी बदल रहे हैं। सात वचनों और सात फेरों के महत्व को सार्थक करने के लिये दांपत्य जीवन में आपसी प्रेम, सहभागिता और विश्वास के मजबूत धागे का होना बहुत जरुरी है।



विवाह के क्या है मायने... ?


वर्तमान के बदलते परिवेश में रिश्तों के मायने भी बदलते जा रहे हैं। आज रिश्तों का वह अर्थ नहीं रहा, जिसकी कल्पना करके हमारे पूर्वजों ने परिवार की नींव रखी थी। आज रिश्ते औपचारिकता का चोला पहनकर बनावटी बनते जा रहे हैं। 

विवाह वह नींव है, जिस पर परिवाररूपी इमारत खड़ी होती है। इसके बगैर जो रिश्ते जिए जाते हैं, वे रिश्ते उन्मुक्त होते हैं। 

कुछ सोच-समझकर ही विवाह को जीवन के एक अनिवार्य 'संस्कार' के रूप में हिन्दू धर्म में अहमियत दी गई होगी। वहीं कुछ धर्मों में विवाह को एक 'अनुबंध' का नाम देकर एक पुरुष को एक से अधिक पत्नियाँ रखने तथा अपने जीवनसाथी से आसानी से स्वतंत्र होने की कानूनन मान्यता दी गई है। 

क्यों जरूरी है विवाह :- 
विवाह के मायने भले ही बदल गए हैं, पर इसकी अनिवार्यता अभी तक काबिज है। क्या कभी आपने सोचा है यदि विवाह जैसी संस्था ही ना होती तो क्या होता? यह प्रश्न आज एक गंभीर चिंतन का विषय है। 

आज जब उन्मुक्त संबंधों की चर्चा उठी है तो विवाह जैसे विषय पर विचार करना भी बेहद जरूरी हो गया है। हमारे धर्म में 'विवाह' जैसी संस्था है तभी स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के साथ जीवनभर रह रहे हैं।


समाज व परिवार का इस बारे में कड़ा रवैया कुम्हार की तरह स्त्री-पुरुषों को परिवाररूपी घड़े के आकार में ढाल रहा है। अनिवार्यता व मर्यादाओं के नाम पर उसके हाथों के द्वारा दी जाने वाली चोट ही आज इस घड़े को सही आकार में ढाल रही है। 

अगर विवाह की जगह उन्मुक्त संबंधों को मान्यता दी जाती तो हमारा भविष्य क्या होता, इसकी कल्पना तो आप कर ही सकते हैं। आज समाज व परिवार के अनुशासन के कारण ही स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के साथी बनकर अपने बच्चों को अपनी पहचान दे रहे हैं। 

यदि इसकी जगह उन्मुक्त व स्वच्छंद संबंध होते और विवाह की कोई कड़ी बंदिश नहीं होती तो कुछ समय एक-दूसरे के साथ रहने के बाद कभी भी कोई भी अपने साथी या बच्चों का परित्याग कर देता जैसा कि आज 'लिव इन रिलेशनशिप' के नाम पर हो रहा है। तब कानून व समाज भी अपनी नाकामी पर आँसू बहाता होता और हमारे बच्चे लावारिस की तरह सड़कों पर भटकते रहते। 

आज यदि स्त्री-पुरुष के शारीरिक संबंधों को विवाह के रूप में कानूनी मान्यता मिली है तो इसका औचित्य भी है। वर्तमान में हम लोग परिवारवादी प्रणाली को अपना रहे हैं और सुख -दु:ख में एक-दूसरे का जीवनभर साथ निभा रहे हैं। आज हमारे बच्चे अपने माँ-बाप के नाम से पहचान पाकर हमारी संपत्ति में अपना अधिकार प्राप्त कर रहे हैं। यह 'विवाह' की सबसे बड़ी सार्थकता है।

भगवान श्रीकृष्ण की माखनचोरी लीला

ब्रज घर-घर प्रगटी यह बात। दधि माखन चोरी करि लै हरि, ग्वाल सखा सँग खात।। ब्रज-बनिता यह सुनि मन हरषित, सदन हमारैं आवैं। माखन खात अचानक...