श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कंद के 56वें अध्याय के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को चांद के दर्शन कर लिए थे और उन्हें सत्राजीत की समयंतक मणि की चोरी का कलंक लगा था, उन्होंने इस कलंक को मिटाने के लिए मणि को ढूंढ निकाला तथा सत्राजीत को उसकी मणि लौटाकर उस कलंक को मिटाया था। लज्जित हुए सत्राजीत ने तब अपनी बेटी सत्यभामा का विवाह भगवान श्री कृष्ण के साथ कर दिया और साथ ही वह मणि भी भगवान को लौटा दी।
श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार जो भी व्यक्ति कलंक चौथ के दिन यदि चन्द्रमा के दर्शन अचानक ही कर ले तो वह श्रीमद् भागवत पुराण की इस कथा को पढऩे और सुनाने से कलंक मुक्त हो जाता है।
पंडित आदित्य प्रकाश शुक्ला के अनुसार 16 कलाओं से युक्त चन्द्रमा को अपनी खूबसूरती पर अभिमान हो गया। एक बार उसने भगवान श्री गणेश के गजमुख एवं लम्बोदर स्वरूप को देखकर उनका उपहास किया, जिससे श्री गणेश नाराज हो गए और उन्हें गुस्सा आ गया। उन्होंने चन्द्रमा को बदसूरत होने का श्राप देते हुए कहा कि जो भी कोई अब से चांद को देखेेगा, उस पर झूठा कलंक जरूर लगेगा।
इस श्राप को सुनकर चन्द्रमा दुखी हुए और छिप कर बैठ गए। तब भगवान श्री नारद जी ने सोचा कि चन्द्रमा के न निकलने पर सृष्टि चक्र में बाधा होगी तब उन्होंने चन्द्रमा को भगवान श्री गणेश जी का लड्डू और मालपूड़ों के भोग के साथ पूजन करने की सलाह दी।
चन्द्रमा ने तब भगवान श्री गणेश जी का पूजन और स्तुति करके उन्हें प्रसन्न किया और श्राप से मुक्त करने के लिए प्रार्थना की। उसकी प्रार्थना से गणेश जी प्रसन्न हो गए और उन्होंने श्राप को सीमित करते हुए कहा कि जो कोई भाद्रपद मास की चतुर्थी को तुम्हारा दर्शन करेगा उसे अवश्य कलंकित होना पड़ेगा।
इसी कारण इस चतुर्थी को चंद्र दर्शन नहीं किया जाता। मान्यता है कि जो लोग नियमित रूप से चन्द्र दर्शन करते हैं वह चन्द्र दर्शन के अशुभ प्रभाव से बचे रहते हैं।
No comments:
Post a Comment