google-site-verification=NjzZlC7Fcg_KTCBLvYTlWhHm_miKusof8uIwdUbvX_U पौराणिक कथा: जानिए दानवीर कर्ण के महा शक्तिशाली कवच प्राप्त करने का रहस्य और पूर्व जन्म के किस पाप का मिला दंड !

Monday, October 22, 2018

जानिए दानवीर कर्ण के महा शक्तिशाली कवच प्राप्त करने का रहस्य और पूर्व जन्म के किस पाप का मिला दंड !

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 महाभारत युद्ध से शायद ही कोई न परिचित हो. कुरुक्षेत्र में महाभारत जैसा बहुत भीषण युद्ध लड़ा गया था जिस में बहुत सी जाने गयी और इसी कारण आज भी करुक्षेत्र के मिटटी का रंग लाल है. महाभारत  ग्रन्थ की रचना ऋषि व्यास ने करी थी जो काफी विस्तृत है तथा इसमें अनेक घटनाओ और पहलुओ का वर्णन है. महाभारत की कथा हम बचपन से सुनते और पढ़ते आ रहे है फिर भी महाभारत  से जुडी कुछ घटनाये ऐसी है जो हम में से बहुत कम ही लोग जानते है. 

महाभारत की इन्ही अनसुनी कथा में से एक है महाभारत के वीर योद्धा दानवीर कर्ण  के पूर्व जन्म से जुडी गाथा. कर्ण कुंती के पुत्र और पांडवो के ज्येष्ठ भ्राता थे परन्तु क्षत्रिय होने के बावजूद वे सूत्र पुत्र कहलाये. वे न केवल अर्जुन से कुशल धनुर्धर थे बल्कि उनसे कुशल योद्धा भी थे फिर उन्हें वह सम्मान प्राप्त नही हो पाया जिसके वे वास्त्विक हकदार थे. इन सब का कारण केवल एक ही था की वे सूत पुत्र  थे. कर्ण  हमेशा धर्म की राह पर चले तथा उन्होंने अपनी आखिर सांसो तक मित्र धर्म का पालन किया. इसके बावजूद कर्ण की पूरी जिंदगी कष्टो से भरी रही, इन सब का कारण था उनके पूर्व जन्म में किये गए पापो का फल जो उन्हें इस जन्म में भुगतना पड़ा.
अपने पहले जन्म में कर्ण  एक असुर थे जिसका नाम दंबोधव था. दंबोधव ने भगवान सूर्य की तपश्या कर उन्हें प्रसन्न किया तथा उनसे वरदान माँगा की उनके द्वारा उसे सो कवच प्राप्त होंगे साथ ही उन कवच पर केवल वही व्यक्ति प्रहार कर सके जिसके पास हज़ारो सालो के तप का प्रभाव हो. दंबोधव यही पर शांत नही हुआ उसने भगवान सूर्य  से यह भी वर मांग लिया की कोई साधारण व्यक्ति इस कवच  को भेदने का भी प्रयास करे तो उसकी मृत्यु उसी क्षण हो जाये क्योकि सूर्य देव दंबोधव के कठिन तपश्या से बहुत प्रसन्न थे अतः यह जानते हुए भी की दंबोधव को दिया वर संसार के लिए कल्याणकारी न होगा उन्होंने यह वर उसे दे दिया. वरदान मिलते ही दंबोधव अपने वास्त्विक स्वभाव में आ गया तथा उसने निर्दोष प्राणियों को मारना शुरू कर दिया. उसने अपने शक्तियों के प्रभाव से सारे वनो और आश्रम को जला दिया.

दंबोधव  के आतंक से परेशान होकर प्रजापति दक्ष की पुत्री मूर्ति ने भगवान विष्णु की तपश्या कर उन्हें प्रसन्न किया तथा वरदान स्वरूप उनसे सहस्त्र कवच के अंत का वरदान माँगा. भगवान विष्णु बोले की वे स्वयं सहस्त्र कवच का अंत करेंगे तथा उसका माध्यम मूर्ति ही होंगी. कुछ समय पश्चात मूर्ति ने नर-नारायण नाम के दो जुड़वा बच्चों को जन्म दिया, जो शरीर से तो अलग थे परन्तु वे कर्म, मन और आत्मा से वे एक-दूसरे से जुड़े हुए थे. नर और नारयण ने संयुक्त प्रयास से 99 कवच काट डाले परन्तु जब एक कवच शेष रह गया था उसी समय नरायण तपश्या में लीन हो गए तथा दंबोधव मौका देख युद्ध स्थल से भाग गया और सूर्य देवता की शरण ले ली.

जब नर और नारायण दंबोधव को ढूढ़ते हुए सूर्य के पास पहुंचे तो सूर्य देव उनसे बोले “हे ईश्वर, मैं मानता हूं दंबोधव एक बुरी आत्मा है, लेकिन इसने अपनी कठोर तपस्या के बल पर वरदान हासिल किया, इसका फल उससे मत छीनिए. वह मदद के लिए मेरी शरण में आया है”.नर और नरायण सूर्य देव से क्रोधित हुए तथा सूर्य देव सहित दंबोधव को भी श्राप दे डाला की दोनों को ही अगले जन्म में अपने कर्मो का फल भुगतना पड़ेगा. इस तरह द्वापर में दंबोधर का अगले जन्म में कर्ण के रूप में जन्म हुआ. कर्ण  का जन्म उसी सुरक्षा कवच के साथ हुआ था जो उनके पूर्व जन्म में दंबोधव के रूप में उनके पास शेष रह गया था.

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