महाभारत के युद्ध में कोरवों की तरफ से युद्ध करने वाले अश्वथामा स्वयं भगवान शिव का अंश थे। अश्वथामा का जन्म भारद्वाज ऋषि के पुत्र गुरु द्रोणाचार्य के यहाँ हुआ। उनकी माता ऋषि शरद्वान की पुत्री कृपी थी। गुरु द्रोण और कृपी ने भगवान शिव की तपस्या करके ही पुत्र की प्राप्ति की थी इसलिए अश्वथामा को शिव का अंश कहा जाता है।
जन्म के पश्चात ही अश्वथामा घोड़े की तरह हिनहिनाने लगा जिस कारण उसका नाम अश्वथामा पड़ा। जन्म से ही उनके मस्तक पर एक मूलयवान मणि विधमान थी। जो की उन्हें हर मुसीबत से बचाकर रखती थी। जन्म के समय गुरु द्रोण की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी अंत: गुरु द्रोण अश्वथामा को लेकर हस्तिनापुर आ गए और वहा के राजकुमारों को धनुष-बाण की शिक्षा देने लगे। पांडवो ने गुरुदक्षिणा के रूप में उनको द्रुपद का राज्य छीनकर दे दिया। बाद में गुरु द्रोणाचार्य ने आधा राज्य द्रुपद को लोटा दिया और आधे को उन्होंने अश्वथामा को दे दिया था।
महाभारत के युद्ध समाप्ति के बाद जब कुरुक्षेत्र के मैदान में दुर्योधन मरणासन अवस्था में अपनी अंतिम सासे ले रहा था तब भगवान श्री कृष्ण उससे मिलने गए. हालाँकि भगवान श्री कृष्ण को देख दुर्योधन क्रोधित नहीं हुआ परन्तु उसने श्री कृष्ण को ताने जरूर मारे.
श्री कृष्ण ने दुर्योधन से उस समय कुछ न कहा परन्तु जब वह शांत हुआ तब श्री कृष्ण ने दुर्योधन को उसकी युद्ध में की गई उन गलतियों के बारे में बताया जो वह न करता तो आज महाभारत का युद्ध वह जीत चुका होता.
कुरुक्षेत्र में लड़े गए युद्ध में कौरवों के सेनापति पहले दिन से दसवें दिन तक भीष्म पितामह थे, वहीं ग्याहरवें से पंद्रहवे तक गुरु दोणाचार्य ने ये जिम्मेदारी संभाली. लेकिन द्रोणाचार्य के मृत्यु के बाद दुर्योधन ने कर्ण को सेनापति बनाया.
यही दुर्योधन के महाभारत के युद्ध में सबसे बड़ी गलती थी इस एक गलती के कारण उसे युद्ध में पराजय का मुख देखना पड़ा. क्योकि कौरवों सेना में स्वयं भगवान शिव के अवतार मौजूद थे जो समस्त सृष्टि के संहारक है.
अश्वथामा स्वयं महादेव शिव के रूद्र अवतार है और युद्ध के सोलहवें दिन यदि दुर्योधन कर्ण के बजाय अश्वथामा को सेनापति बना चुका होता तो शायद आज महाभारत के युद्ध का परिणाम कुछ और ही होता.
इसके साथ ही दुर्योधन ने अश्वथामा को पांडवो के खिलाफ भड़काना चाहिए था जिससे वह अत्यधिक क्रोधित हो जाए. परन्तु कहा जाता है की ”विनाश काले विपरीत बुद्धि ” दुर्योधन अपने मित्र प्रेम के कारण इतना अंधा हो गया था की अश्वथामा अमर है यह जानते हुए भी उसने कर्ण को सेनापति चुना.
कृपाचार्य अकेले ही एक समय में 60000 योद्धाओं का मुकाबला कर सकते थे लेकिन उनका भांजा ( कृपाचर्य की बहन कृपी अश्वथामा की बहन थी ) अश्वथामा में इतना समार्थ्य था की वह एक समय में 72000 योद्धाओं के छक्के छुड़ा सकता था.
अश्वथामा ने युद्ध कौशल की शिक्षा केवल अपने पिता से ही गृहण नहीं करी थी बल्कि उन्हें युद्ध कौशल की शिक्षा इन महापुरषो परशुराम, दुर्वासा, व्यास, भीष्म, कृपाचार्य आदि ने भी दी थी.
ऐसे में दुर्योधन ने अश्वथामा की जगह कर्ण को सेनापति का पद देकर महाभारत के युद्ध में सबसे बड़ी भूल करी थी.
भगवान श्री कृष्ण के समान ही अश्वथामा भी 64 कलाओं और 18 विद्याओं में पारंगत था.
भगवान श्री कृष्ण के समान ही अश्वथामा भी 64 कलाओं और 18 विद्याओं में पारंगत था.
युद्ध के अठारहवे दिन भी दुर्योधन ने रात्रि में उल्लू और कौवे की सलाह पर अश्वथामा को सेनापति बनाया था. उस एक रात्रि में ही अश्वथामा ने पांडवो की बची लाखो सेनाओं और पुत्रों को मोत के घाट उतार दिया था.
अतः अगर दुर्योधन ऐसा पहले कर चुका होता था तो वह खुद भी न मरता और पांडवो पर जीत भी दर्ज कर चुका होता, हालाँकि यह काम अश्वथामा ने युद्ध की समाप्ति पर किया था. जब अश्व्थामा का यह कार्य दुर्योधन को पता चला था तो उसे शकुन की मृत्यु प्राप्त हुई थी.
महाभारत के युद्ध में एक समय ऐसा आता है जब राक्षसो की सेना घटोत्कच के नेतृत्व में भयानक आक्रमण किया तो सभी कौरव वीर भाग खड़े, तब अकेले ही अश्वथामा वहाँ अड़े रहे। उन्होंने घटोत्कच के पुत्र अंजनपर्वा को मार डाला। साथ ही उन्होंने पांडवो की एक अक्षौहिणी सेना को भी मार डाला घटोत्कच को भी घायल कर दिया। उसके अतिरिक्त द्रुपद, शत्रुंजय, बलानीक, जयाश्व तथा राजा श्रुताहु को भी मार डाला था। उन्होंने कुन्तिभोज के दस पुत्रो को वध किया।
उन्होंने अंत में पांडवो के 5 पुत्रो का छलपूर्वक वध कर दिया था तथा जिसके कारण उन्हें काफी शर्मिंदा होना पड़ा था इसके पश्चात अर्जुन ने उनको मारने का प्रण ले लिया था। जिससे सुन कर अश्वथामा भाग खड़ा हुआ और अपनी रक्षा के लिए ब्रम्हास्त्र चला दिया उससे बचने के लिए अर्जुन ने भी ब्रम्हास्त्र चला दिया। अश्वथामा ब्रम्हास्त्र चलाना तो जानता था पर उसे वापिस लेना नहीं जनता था अर्जुन ने तो अपना ब्रम्हास्त्र वापिस ले लिया। पर अश्वथामा ने अपना ब्रम्हास्त्र उत्तरा की ओर छोड़ दिया। भगवन श्री कृष्ण ने उनकी गर्भ की रक्षा की इसके पश्चात अर्जुन ने उनके मस्तक से मणि निकाल दी ओर उसके केश काट काट डाले ओर भगवान कृष्ण ने उनको सालो साल तक भटकते रहने का श्राप दे दिया
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