एक दिन भगवान् कृष्ण के पास नारद जी आये. बोले- ‘‘भगवन्! मैं ब्रह्मज्ञान की बात पूछने आया हूँ। क्या है वह ब्रह्मज्ञान? क्यों हम ब्रह्म का दर्शन नहीं कर पाते
’’
श्री कृष्ण जी ने कहा-‘‘अभी आये हो। थोड़ी देर बैठो, प्रश्न का उत्तर मिल जायेगा।’’
नारद जी बैठे, विश्राम किया और बोले-‘‘अब दीजिये मेरे प्रश्न का उत्तर।’’
श्री कृष्ण ने कहा-‘‘आओ, जंगल में घूमने चलें, वहाँ बातें करेंगे।’’
दोनों निकल पड़े सैर को। घूमते-घूमते नारद जी काफ़ी थक गये। प्यास भी सताने लगी। श्री कृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा-‘‘नारद जी! आपको शायद प्यास लगी है, नारद जी बोले जी भगवन।’’ आगे गये तो उन्हें एक कुआँ मिला, जिसपर कुछ स्त्रियाँ पानी भर रही थीं। नारद जी ने पानी माँगा। एक युवती ने अपने घड़े से पानी पिला दिया। नारद जी पानी पी रहे थे ओर उसकी ओर देख रहे थे। देखते-देखते मन में मोह जाग उठा। पानी पी लिया तो एक ओर खड़े हो गये। वह लड़की घड़े को लेकर अपने घर को चली तो नारद जी भी उसके पीछे-पीछे चल पड़े।
उसके घर पहुँचे तो लड़की के पिता ने उन्हें पहचानकर कहा-‘‘आइये नारद जी! मेरे सौभाग्य कि आपके दर्शन हुए। अब भोजन किये बिना जाने न दूँगा।’’
नारद जी भी यही चाहते थे फिर बोले-‘‘भूख तो लगी है।’’
भोजन करने के बाद बोले-‘‘हम कुछ दिन तुम्हारे घर में रहें तो क्या हो?’’
लड़की के पिता ने कहा-‘‘यह तो मेरा सौभाग्य है।’’
नारद जी वहीं टिक गये। उस लड़की के रूप का मोह उन्हें पागल किये देता था। मन में जो गिरावट आ गई थी, वह और भी नीचे लिये जाती थी। एक दिन नारद जी लड़की के पिता से बोले-‘‘मैं चाहता हूँ कि इस कन्या का विवाह मेरे साथ हो जाए।’’
लड़की के पिना ने कहा-‘‘महाराज! कन्या तो पराया धन है। मुझे उसका विवाह तो करना ही हे। आपसे अच्छा वर उसे कहाँ मिलेगा? मैं विवाह कर दूँगा अवश्य, परन्तु मेरी एक शर्त भी माननी होगी और शर्त यह है कि विवाह के पश्चात् आप मेरे ही घर पर रहें, कहीं जायें नहीं।’’
नादरजी को और क्या चाहिए था! रमते राम का कोई घर-घाट था नहीं। चिन्ता कर रहे थे कि पत्नी को लेकर कहाँ जायेंगे? बना-बनाया घर मिल गया। शर्त स्वीकार हो गई। विवाह भी हो गया। नारद जी अपने-आपको भूलकर ससुरालवालों के पशु चराते, उनके खेतों में काम करते। उन्हीं के घर में रहने लगे। इस प्रकार कितने ही वर्ष व्यतीत हो गये। गृहस्थी नारद के दो-तीन बच्चे भी हो गये। तभी एक दिन मूसलाधार वर्षा होने लगी। एक दिन, दो दिन, कई दिन होती रही। सब ओर जल-थल एक हो गया। शेष लोग कहाँ-कहाँ गये, यह नारद जी ने नहीं देखा। वह तो अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर मकान की दूसरी मंज़िल में चले गये। वहांँ भी पानी पहुँचा तो छत पर चले गये। परन्तु बाढ़ तो रुकी नहीं। पानी जब छत के निकट पहुँचा तो नारद जी ने समझा कि मकान अब बचेगा नहीं। पत्नी और बच्चों सहित पानी में कूद पड़े कि किसी ऊँचे स्थान पर जाकर प्राण बचायें। परन्तु ऐसा करते ही दो बच्चे डूब गए। पत्नी रोने लगी तो नारद बोले-‘‘भागवान, रोती क्यों है? तू भी है, मैं भी हूँ, बच्चे ओर हो जायेंगे।’’ परन्तु तभी तीसरा बच्चा भी डूब गया। उसे ढूँढने के लिए नारद जी हाथ-पाँव मार ही रहे थे कि पानी का एक और रेला आया, पत्नी भी डूब गई। बड़ी कठिनता से नारद जी एक ऊँचे स्थान पर पहुँचे। वहांँ भी पानी था। थक बहुत गये थे। तैरने का अब प्रश्न उत्पन्न नहीं होता था, परन्तु धन्यवाद किया कि खड़े हो सकते हैं। पानी छाती तक था। तभी पानी ऊपर बढ़ा, कन्धों तक पहुँच गया, फिर ठोडी भी डूब गई। पानी होठों के पास पहुँचा तो नारद जी चिल्ला उठे-‘‘हे भगवन्, मुझे बचाओ!’’
तभी याद आया कि वे तो भगवान् कृष्ण के लिए पानी लेने आये थे। रोकर बोले-‘‘क्षमा करो भगवन्!’’
और तब कहानी है कि आँख खुल गई। नारद जी ने देखा कि कहीं कुछ भी नहीं है। वे जंगल में पड़े हैं। सामने खड़े श्री कृष्ण मुस्करा रहे हैं। मुस्कराते हुए उन्होंने कहा-‘‘नारद जी! आपके प्रश्न का उत्तर मिल गया है या नहीं?’’
प्रकृति की वास्तविकता को समझकर इससे छुटकारा पा लेना ही ब्रह्मज्ञान है। इससे मुक्ति पाये बिना ब्रह्मदर्शन नहीं होता। परन्तु यह प्रकृति माया इतनी लुभाने वाली है कि इसके जाल में फँसा व्यक्ति तभी समझता है, जब नाक तक पानी आ जाता है।
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