तुलसी नामक पौधे की महिमा वैद्यक ग्रंथों के साथ-साथ धर्म शास्त्रों में भी बहुत अधिक गाई गई है। कार्तिक कृष्ण पक्ष में पडऩे वाली एकादशी रमा एकादशी एवं तुलसी एकादशी के नाम से जानी जाती है। शास्त्रों में तुलसी को विष्णु प्रिया माना गया है। इस विषय में एक कथा है।
कृष्ण की पत्नी सत्यभामा को अपने रूप पर गर्व था। वह सोचती थीं कि रूपवती होने के कारण ही श्री कृष्ण अन्यों की अपेक्षा उन पर अधिक स्नेह रखते हैं। एक दिन जब नारद जी उधर गए तो सत्यभामा ने कहा कि आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि अगले जन्म में भी श्री कृष्ण ही मुझे पति रूप में प्राप्त हों।
देवर्षि नारद बोले कि यह नियम है कि यदि कोई अपनी प्रिय वस्तु इस जन्म में दान करे तो वह उसे अगले जन्म में प्राप्त होगी। अत: तुम श्री कृष्ण को दान के रूप में मुझे दे दो तो वे तुम्हें अगले जन्म में अवश्य मिलेंगे।
सत्यभामा ने श्री कृष्ण को देवर्षि नारद को दान में दे दिया। जब नारद जी श्री कृष्ण जी को लेकर जाने लगे तो अन्य रानियों ने उन्हें रोक लिया। उस पर नारद जी ने कहा यदि श्री कृष्ण के बराबर सोना व रत्न दे देंगी तो हम इन्हें छोड़ देंगे। तराजू के एक पलड़े में श्री कृष्ण तथा दूसरे पलड़े में सभी रानियां अपने आभूषण चढ़ाने लगीं परन्तु पलड़ा टस से मस नहीं हुआ। यह सुन कर सत्यभामा ने कहा मैंने यदि इन्हें दान किया है तो उबार भी लूंगी। ऐसा कह कर उन्होंने अपने सारे आभूषण तराजू पर चढ़ा दिए परन्तु फिर भी पलड़ा न हिला तो सत्यभामा जी बड़ी लज्जित हुईं।
यह सारा समाचार जब रुक्मणि जी ने सुना तो वह तुलसी पूजन करके उसकी पत्ती ले आईं और उसे पलड़े में रखते ही तुला का वजन बराबर हो गया। देवर्षि नारद तुलसी दल लेकर स्वर्ग को चले गए तथा रुक्मणि जी तुलसी के वरदान की महिमा के कारण वे अपनी व अन्यों के सौभाग्य रक्षा करने में सफल हुईं। तब से तुलसी को वह पूज्य पद प्राप्त हो गया तथा श्री कृष्ण उसे सदा अपने मस्तक पर धारण करते हैं। आज भी एकादशी में तुलसी का व्रत व पूजन किया जाता है।
No comments:
Post a Comment