google-site-verification=NjzZlC7Fcg_KTCBLvYTlWhHm_miKusof8uIwdUbvX_U पौराणिक कथा: August 2019

Friday, August 23, 2019

भगवान श्रीकृष्ण की माखनचोरी लीला

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ब्रज घर-घर प्रगटी यह बात।
दधि माखन चोरी करि लै हरि, ग्वाल सखा सँग खात।।
ब्रज-बनिता यह सुनि मन हरषित, सदन हमारैं आवैं।
माखन खात अचानक पावैं, भुज भरि उरहिं छुपावैं।। (सूरदास)

भगवान श्रीकृष्ण लीलावतार हैं। व्रज में उनकी लीलाएं चलती ही रहती हैं। श्रीकृष्ण स्वयं रसरूप हैं। वे अपनी रसमयी लीलाओं से सभी को अपनी ओर खींचते हैं। गोपियां प्राय: नंदभवन में ही टिकी रहतीं हैं। ‘कन्हैया कभी हमारे घर भी आयेगा। कभी हमारे यहां भी वह कुछ खायेगा। जैसे मैया से खीझता है, वैसे ही कभी हमसे झगड़ेगा-खीझेगा।’ ऐसी बड़ी-बड़ी लालसाएं उठती हैं गोपियों के मन में। श्रीकृष्ण भक्तवांछाकल्पतरू हैं। गोपियों का वात्सल्य-स्नेह ही उन्हें गोलोकधाम से यहां खींच लाया है। श्रीकृष्ण को अपने प्रति गोपियों द्वारा की गयी लालसा को सार्थक करना है और इसी का परिणाम माखनचोरी लीला है।
एक दिन श्रीकृष्ण अपने सूने घर में ही माखनचोरी कर रहे थे। इतने में ही यशोदाजी आयीं तो वे डर गये और माता से बोले–’मैया ! यह जो तुमने मेरे कंगण में पद्मराग जड़ा दिया है, इसकी लपट से मेरा हाथ जल रहा था। इसी से मैंने इसे माखन के मटके में डालकर बुझाया था।’ यशोदामाता कन्हैया की मीठी-मीठी बातों से मुग्ध हो गयीं और सोचने लगीं कि देखो, मेरा नन्हा लाला कितना होशियार हो गया है। एक दिन श्रीकृष्ण मटकी में से माखन निकाल कर खाने लगते हैं। सहसा मणिस्तम्भ में उन्हें अपना प्रतिबिम्ब दीख पड़ता है। उन्हें प्रतीत होता है कि मेरे आने से पूर्व एक अन्य शिशु यहां आकर स्तम्भ से सटा खड़ा है। उन्हें भय होने लगता है कि कहीं ये मेरी चोरी मैया से प्रकट न कर दे। वे उसे प्रलोभित करने लगते हैं। श्रीकृष्ण मणिस्तम्भ से बातें कर रहे हैं–’अरे भैया ! मैया से कहियो मत, आज से हम दोनों साथी हुए। तू भी मेरे बराबर माखन खा ले, यह ले मैं भी माखन खा रहा हूँ, तू भी खा ले।’  
जिनकी माया से मोहित होकर जगत के मूढ प्राणी ‘मैं-मेरे’ का प्रलाप करते हैं, 
उनका मणिस्तम्भ में अपना ही प्रतिबिम्ब देखकर भ्रमित हो जाना कितना मोहक है।
मैया री, मोहिं माखन भावै।
जो मेवा पकवान, कहति तू, मोहिं नहीं रुचि आवै।।
गोपियां यह सब देख रहीं थीं। गोपियों के मन में आया कि कन्हैया अपनी माता के साथ जैसी लीला करता है, वैसी लीला हमारे घर में भी आकर करता तो हमारा कितना बड़ा सौभाग्य होता। गोपियों का तन, मन, धन सभी कुछ प्राणप्रियतम श्रीकृष्ण का था। प्रात:काल निद्रा टूटने से लेकर रात को सोने तक वे जो कुछ भी करती थीं, सब श्रीकृष्ण की प्रीति के लिए ही करती थीं। गोपियाँ श्रीकृष्णप्रेम की पराकाष्ठा हैं। गोपियों के मन, वाणी और शरीर श्रीकृष्ण में ही तल्लीन थे। रात को दही जमाते समय कन्हैया की रूपमाधुरी का ध्यान करती हुई प्रत्येक गोपी यह इच्छा करती थी कि मेरा दही सुन्दर जमे, श्रीकृष्ण के लिए उसे बिलोकर मैं बढ़िया-सा और बहुत-सा माखन निकालूँ और उसे उतने ही ऊँचे छींके पर रखूँ जितने पर श्रीकृष्ण के हाथ आसानी से पहुँच सकें। फिर मेरे प्राणधन श्रीकृष्ण अपने सखाओं को साथ लेकर हँसते हुए मेरे घर में आयें, माखन लूटें और अपने सखाओं और बंदरों को लुटाएं। फिर मेरे आँगन में नाचें और मैं किसी कोने में छिपकर इस लीला को अपनी आँखों से देखकर अपना जीवन सफल करूँ और अचानक उन्हें पकड़कर अपने हृदय से लगा लूँ।
श्रीकृष्ण अन्तर्यामी हैं। वे अपनी लीलाशक्ति से गोपियों के मन की बात जान गए। उन्होंने सोचा–’यह व्रज अपना है, व्रजवासी मेरे निजजन हैं, सभी गोपियों ने कितने स्नेह से मेरे लिए नवनीत (माखन) सजाया है, और आकुल प्राणों से किस प्रकार मेरी पल-पल प्रतीक्षा कर रही हैं, मेरा अवतरण परमानन्दरस को बाँटने के लिए ही हुआ है। उसकी उपयुक्त पात्र ये वात्सल्यमयी गोपियां ही हैं। अत: मैं इन सबके मनोरथ पूर्ण करूंगा।’
प्रथम करी हरि माखन-चोरी।
ग्वालिनि मन इच्छा करि पूरन, आप भजे ब्रज-खोरी।।
मन में यहै विचार करत हरि, ब्रज घर-घर सब जाऊँ।
गोकुल जन्म लियौ सुख-कारन, सब कें माखन खाउँ।।
बालरूप जसुमति मोहि जानै, गोपिनि मिलि सुख भोग।
सूरदास प्रभु कहत प्रेम सौं, ये मेरे ब्रज-लोग।।
नंदनन्दन श्रीकृष्ण ने अपने सखाओं से कहा–’भैयाओ ! माखन खाने का खेल खेलोगे?’ ‘माखन का खेल!’ दो-चार सखाओं ने एक-साथ आश्चर्य में भरकर कहा। फिर तो श्रीकृष्ण ने अपनी माखनचोरी (नवनीतहरण) लीला की विस्तृत योजना सखाओं के समक्ष रख दी–किस प्रकार हम लोग छिपकर प्रत्येक गोपी के घर में जायें, मैं माखन की मटकी उठा लाऊँ और फिर हम सब मिलकर खायँ, दूसरे पशु-पक्षियों को खिलायें, गिरायें, माखन की कीच मचायें। सुनकर गोपबालकों के आनन्द का पार नहीं। ताली पीट-पीटकर वे नाचने लगे। और नंदबाबा की कसम खाकर वे श्रीकृष्ण की बुद्धि की प्रशंसा करने लगे–
करैं हरि ग्वाल संग विचार।
चोरी माखन खाहु सब मिलि, करहु बाल-बिहार।।
यह सुनत सब सखा हरषे, भली कही कन्हाइ।
हँसि परस्पर देत तारी, सौंह करि नँदराइ।।
कहाँ तुम यह बुद्धि पाई, स्याम चतुर सुजान।
सूर प्रभु मिलि ग्वाल-बालक, करत हैं अनुमान।।
दूसरे दिन जब प्रभातबेला में श्रीकृष्ण जागे तो सखामण्डली उन्हें घेरे खड़ी थी। यशोदामाता ने उबटन, स्नान, श्रृंगार आदि कर श्रीकृष्ण के श्रीअंगों को सजाया। सखाओं समेत सभी को कलेवा कराया। फिर सबको खेलने जाने की अनुमति दे दी। आनन्दनाद करते हुए श्रीकृष्ण और गोपबालक बाहर की तरफ दौड़े। आगे-आगे श्रीकृष्ण और पीछे-पीछे सखामण्डली। गोपबालक नहीं जानते कि कहां जाना है, वे तो नंदनन्दन का अनुसरण कर रहे हैं। बिना रुके नंदनन्दन एक गोपी के घर के बाहर पहुँच गए–
गये स्याम तिहिं ग्वालिनि कैं घर। 
देख्यौ द्वार नहिं कोउ, इत-उत चितै, चले तब भीतर।।
वह गोपी उस समय दधिमन्थन कर रही थी पर उसे अपने शरीर की सुध-बुध नहीं थी, वह तो किसी और ही भाव में तन्मय थी। आकाश में देवता, विद्याधर, किन्नर, गन्धर्व आदि नंदनन्दन की इस मनमोहिनी लीला का दर्शन करने आए हैं।

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माखन चुराने कौन आया है?

माखन चुराने वे आये हैं; जिनके प्रत्येक रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्ड उसी प्रकार एक साथ घूमते रहते हैं, जैसे आकाश में वायुसंचारित क्षुद्र रज:कण उड़ते रहते हैं, जिनका अन्त ब्रह्मा, इन्द्र आदि नहीं जानते, न हीं जान सकते हैं; जो इतने अनन्त हैं कि अपना अन्त स्वयं नहीं जानते, क्योंकि जब अन्त है ही नहीं, तब कोई जानेगा कैसे? जगत का अवसान हो जाने पर भी जो अक्षुण्ण रहते हैं, जो सर्वज्ञ हैं, जिनसे जगत का सृजन, संस्थान, संहार है, जिनकी सत्ता पर ही जगत की सत्ता अवलम्बित है,
वह न स्थूल है, न अणु है, न क्षुद्र है, न विशाल है, न अरुण है, न द्रव है, न छाया है, न तम है, न वायु है, न आकाश है, न रस है, न गन्ध है, न नेत्र है, न कर्ण है, न वाणी है, न मन है, न तेज है, न प्राण है, न मुख है, न माप है; उसमें न अन्तर है, न बाहर है–जिनके स्वरूप का वर्णन श्रुतियां भी नहीं कर सकतीं, इस प्रकार आपके अतिरिक्त वस्तुओं का निषेध करते-करते अन्त में अपना भी निषेध कर देती है और आप में ही अपनी सत्ता खोकर सफल हो जाती हैं–  

मैया ने पूछा–’लाला तुम किससे बात कर रहे हो?’ श्रीकृष्ण ने कहा–’मैया, तेरे घर में एक माखनचोर आया है। मैं मना करता हूँ तो मानता ही नहीं। मैं क्रोध करता हूँ तो यह भी क्रोध करता है।’ यशोदामाता अपने शिशु की प्रतिभा देखकर आनन्दमग्न हो गयीं।
एक बार यशोदाजी ने स्वयं श्रीकृष्ण को माखन चुराते देख लिया। उनका मुख दधि से सना हुआ था। यशोदाजी ने हाथ में सांटी ले ली। उस समय श्रीकृष्ण अत्यन्त कातर होकर उत्तर देते हैं–
मैया मैं नहिं माखन खायौ।
ख्याल परैं ये सखा सबै मिलि, मेरे मुख लपटायौ।
देखि तुही सींके पर भाजन, ऊँचैं धरि लटकायौ
हौं जु कहत नान्हे कर अपनें, मैं कैसैं करि पायौ।
मुख दधि पौंछि, बुद्धि इक कीन्हीं, दोना पीठि दुरायौ।
डारि साँटि, मुसुकाइ जसोदा, स्यामहिं कंठ लगायौ।
बाल-विनोद-मोद मन मोह्यौ, भक्ति-प्रताप दिखायौ।
सूरदास जसुमति कौ यह सुख, सिव विरंचि नहिँ पायौ।।
एक दिन यशोदामाता विभिन्न पकवान-मिठाइयाँ थालों में सजाकर श्रीकृष्ण से लाड़ लड़ा रही थीं किन्तु मिठाई-पकवान खाने की बात तो दूर श्रीकृष्ण उस ओर देख भी नहीं रहे थे और खीझकर कह रहे थे–
–वह नराकृति ब्रह्म, वे प्रकृति-पुरुष के स्वामी पुरुषोत्तम ही गोपसुन्दरियों के घर माखन चुराने आए हैं। गोपी ने दधि बिलोना अब बन्द कर दिया है क्योंकि माखन ऊपर आ गया है। गोपी रात्रि के अन्तिम प्रहर से दधि-मन्थन कर रही है और माखन कब का ऊपर आ चुका है। परन्तु गोपी का चित्त तो यहां नहीं है। गोपी तो मन-ही-मन नंदभवन जा पहुँची थीं, अपने कन्हैया को माखन अरोगने (खाने) का मूक निमन्त्रण देने के लिए। जब श्रीकृष्ण वास्तव में उसके घर जा पहुँचे तब उसे मथे दधि पर से माखन उतारने का भान हुआ। गोपी माखन उतारने के लिए कमोरी (कलछी) लेने गई और कन्हैया को अवसर मिल गया माखन अरोगने का। वहां जो कुछ भी दधि-माखन था, सबका भोग लगाकर और खाली मटकी वहीं छोड़कर हँसते हुए कन्हैया सखाओं के साथ बाहर चले गए।
जब गोपी कमोरी लेकर लौटी तो देखती है कि नीलमणि श्रीकृष्ण सखाओं के साथ उसके घर से बाहर निकल रहे हैं और उनके लाल-लाल अधरों पर माखन लगा है और हस्तकमल भी माखन से सने हैं–
आइ गई कर लिऐं कमोरी, घर तैं निकसे ग्वाल।
माखन कर, दधि मुख लपटानौ, देखि रही नँदलाल।।
गोपी का मनोरथ पूरा हो गया और वह आनन्द से विह्वल हो गई। उसे ऐसा लगने लगा मानो स्वप्न देख रही हो। इतने में श्रीकृष्ण अपने सखा का हाथ पकड़कर व्रज की गलियों में ओझल हो गए। गोपी निर्निमेष नयनों से उनकी ओर देखती रहती है। श्रीकृष्ण के सलोने माखन सने मुख की मंद हँसी में उसकी चेतना विलुप्त होने लगी। दिन के उजाले में श्रीकृष्ण उसका मन हर कर, चित्त चुराकर चले गए और वह ठगी-सी खड़ी रह गयी। अब उसके पास मन नहीं है। मन के स्थान पर उसके प्रियतम श्यामसुन्दर का रस भरा है। उसे इतना आनन्द हुआ कि वह फूली न समायी।
फूली फिरति ग्वालि मन में री।
पूछति सखी परस्पर बातैं, पायौ परयौ कछू कहूँ तैं री।।
अन्य गोपियों ने जब उसकी यह दशा देखी तो उससे पूछा–’सखि, ऐसी क्या बात है, हमें सुनाती क्यों नहीं? तुझे कहीं कुछ पड़ा धन मिल गया क्या? हमारे शरीर ही तो दो हैं, हमारा जी तो एक ही है–हम-तुम दोनों एक ही रूप हैं। भला, हमसे छिपाने की कौन सी बात है?’ तब उस गोपी के मुख से इतना ही निकला–’मैंने आज अनूप रूप देखा है।’
सूरदास कहै ग्वालि सखिनि सौं; देख्यौ रूप अनूप।।
बस, फिर उसकी वाणी रुक गयी और प्रेम के आँसू बहने लगे। सभी गोपियों की यही दशा थी।

माखनचोरी लीला का रहस्य

प्राय: चोरी शब्द का अर्थ न जानने के कारण लोग अक्सर भगवान श्रीकृष्ण को माखनचोर कहते हैं। सबसे पहले हमें यह समझना चाहिए कि चोरी किसे कहते हैं?  सामान्यत: चोरी शब्द का अभिप्राय यह है कि किसी दूसरे की कोई चीज, उसकी इच्छा के बिना, उसके अनजान में और आगे भी वह जान न पाये–ऐसी इच्छा रखकर ले ली जाती है। जबकि भगवान श्रीकृष्ण गोपियों के घर से माखन लेते थे उनकी इच्छा से, गोपियों के अनजान में नहीं। वे गोपियों के सामने ही माखन खाते और गोपी के देखते-ही-देखते दौड़ते हुए निकल जाते थे। दूसरे, संसार में और संसार के बाहर कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो भगवान की न हो। गोपियों का तो सर्वस्व ही भगवान का था। वास्तव में सत्य तो यह है कि गोपियों ने भगवान के लिए अपने प्रेम की अधिकता के कारण ही उनका नाम ‘चोर’ रख दिया था क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने उनके मन को चुरा लिया था। श्रीकृष्ण हैं ही चित्तचोर। भगवान श्रीकृष्ण ने जिस समय माखनचोरी लीला की उस समय वे लगभग दो-तीन वर्ष के बच्चे थे और गोपियां अत्यधिक स्नेह के कारण उनकी ऐसी मधुर लीलाएं देखकर आनन्दमग्न हो जाती थीं।
जगत का आकर्षण श्रीकृष्ण करते हैं और श्रीकृष्ण का आकर्षण गोपी-प्रेम करता है। गोपियां तन, मन, धन सर्वस्व श्रीकृष्ण को अर्पण करती हैं। जिन गोपियों ने सर्वस्व अर्पण किया है, उन गोपियों के घर जाकर श्रीकृष्ण थोड़ा माखन खाते हैं तो क्या यह चोरी कही जाएगी? अलौकिक दृष्टि से जगत के मालिक श्रीकृष्ण हैं। श्रीकृष्ण के अतिरिक्त कौन-सी वस्तु है जिसे वे अपने अधिकार में करें? उनके अतिरिक्त कौन है, जिसकी इच्छा के बिना, जिसकी अनुपस्थिति में वे वस्तु ग्रहण करें। जब कोई वस्तु नहीं जो श्रीकृष्ण से भिन्न हो, तब वे कब, कहाँ, किसकी, किसलिए, कौन-सी वस्तु चोरी करेंगे? वे घर के स्वामी हैं, चोर नहीं हैं। यह अलौकिक दिव्य-प्रेम कथा है। लौकिक दृष्टि से भी यह चोरी नहीं है। जिस गोपी के घर श्रीकृष्ण माखन अरोगते हैं उसका पुत्र भी श्रीकृष्ण की चोर-मंडली में है और जिस समय उसकी मां घर पर नहीं होती है उस समय वह श्रीकृष्ण को अपने घर माखन खाने के लिए ले जाता है, फिर सब साथ माखन खाते हैं, तो उसे चोरी कैसे कहा जा सकता है।

यह माखन की चोरी नहीं है तो क्या है?

यह है वात्सल्य-रस-वितरण की एक उत्कृष्ट प्रक्रिया, वात्सल्य-रस के आस्वादन की पवित्र प्रणाली, भक्तों के मनोरथ पूर्ति की एक मधुर, मनोहर योजना और श्रीकृष्ण के बालपन की अप्रतिम झाँकी। अपने निजजन व्रजवासियों को सुखी करने के लिए ही तो भगवान गोकुल में पधारे थे। माखन तो नंदबाबा के घर पर कम नहीं था। लाख-लाख गौएं थीं। वे चाहे जितना खाते-लुटाते। परन्तु वे तो केवल नंदबाबा के ही नहीं; सभी व्रजवासियों के अपने थे, सभी को सुख देना चाहते थे। गोपियों की लालसा पूरी करने के लिए ही वे उनके घर जाते और चुरा-चुराकर माखन खाते। यह वास्तव में चोरी नहीं, यह तो गोपियों की पूजा-पद्धति का भगवान के द्वारा स्वीकार था। भक्तवत्सल भगवान भक्त की पूजा स्वीकार कैसे न करें?

माखनचोरी से सम्बन्धित गोपियों के उलाहने

ब्रज में करत स्याम हुरदंग।
चोरी करत नित्य माखन की, लै लरिकन को संग।।
बरजोरी सों छीन मटकिया, करत गोपियन तंग।
बरजे बात न मानत तनिकउ, भरि उर अधिक उमंग।।
देहिं उलहनो ग्वालिन जसुमति, कहि-कहि सकल प्रसंग।
सुनत रिसाइ बहावत दृग सों, अँसुअन गंग-तरंग।।
रूठि पटकि झट लकुटि कँवरिया, बोलत बचन दबंग।
तू पतियाहि मातु ग्वालिन सों, करत मोहिं नित तंग।। (सनातनकुमारजी वाजपेयी ‘सनातन’)
गोपियों का हर रोज का नियम है कि सुबह वे यशोदाजी के घर आती हैं। श्रीकृष्ण का दर्शन करती हैं और यशोदामाता को लाला की एक-एक लीला सुनाती हैं। असल में झुण्ड-की-झुण्ड गोपियां आतीं श्रीकृष्ण को निहारने, अपनी आँख सेंकने; परन्तु सीधी-सच्ची बात न कहकर तरह-तरह के झूठे बहाने बनाती हैं और यशोदामाता को उलाहने देती हैं।
दिन दिन देन उराहनो आवें,
यह ग्वालिनि जोबन मदमाती झूठे दोष लगावें।
कबहुँ कहत कंचुकी फारी कबहुँक और बतावे।।
मन लाग्यो कान्ह कमल दल लोचन, उत्तर बहुत बनावे।
चतुर्भुज प्रभु गिरिधर मुख यह मिस छिन छिन देखन आवे।।
पुत्रप्रेम के कारण यशोदाजी यह स्वीकार नहीं करतीं। वे श्रीकृष्ण का पक्ष लेकर गोपियों से लड़ती हैं–
मेरौ गोपाल तनक सौ, कहा करि जानै दधि की चोरी।
हाथ नचावत आवति ग्वारिनि, जीभ करै किन थोरी।। (सूरसागर)
एक गोपी ने कहा–मां ! कन्हैया बहुत शैतानी करता है। कल कन्हैया मेरे घर आया था।  दूध दुहने का समय नहीं हुआ था, फिर भी उसने बछड़ों को छोड़ दिया। सभी बछड़े सारा दूध पी गए। दूध दुहने के बाद बछड़ों को छोड़े वह तो साधारण ग्वाले हैं, पर यह ग्वाला तो ऐसा है कि दूध दुहने के समय से पहिले ही बछड़ों को छोड़ देता है। इसका भाव यह है कि श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम हैं जिस जीव पर विशिष्ट कृपा करते हैं उसे उसी जन्म में मुक्ति दे देते हैं। यशोदाजी गोपियों को समझाती हैं–वृद्धावस्था में बालक का जन्म हुआ है। वह मुझे प्राणों से भी प्रिय है। तुम सबके आशीर्वाद से पुत्र हुआ है। इसके लिए जैसी मैं, वैसी तुम। जब वह तुम्हारे घर आकर शैतानी करे तो तुम उसे धमकाना। गोपियों ने कहा–यशोदाजी, हमने डांटकर देख लिया, पर उस पर डांट का कोई असर नहीं होता। मैया, तुम्हारे लाला में बहुत बुरी आदत है वह हमारे घर में दबे पांव चुपचाप घुस आता है और सब दही-माखन खा लेता है। खुद खा ले तो ठीक है, और बालकों को भी खिलाता है, और हम पर आरोप लगाता है कि हम बासी दही-माखन बेचती हैं। सो सब भूमि पर फैला देता है और बर्तन फोड़ देता है। मैया ने कहा–यह नन्हा सा तो बच्चा है। इसकी मुट्ठी-भर की कमर है और जरा-सा पेट है। इसने तुम्हारे घर का थोड़ा-सा माखन खा लिया तो हमको बड़ी खुशी है क्योंकि हमारे घर में तो बार-बार आग्रह करने पर भी नहीं खाता। तुम इसको भला-बुरा मत कहो। मैंने बड़े पुण्यकर्म करने के बाद इसको पुत्र रूप में पाया है और एक पल के लिए भी मैं कन्हैया को अपने से अलग नहीं करती। आंगन में दधि-माखन की मटकियां भरी रखी हैं। जिसका जितना दधि-माखन खाया है, अब तुम तोल-तोल के हमसे एक का दो ले जाओ।
गारी मत दीजो मो गरीबनी को जायो है,
जितेतो बिगार कियो, आन कहो मोसो तुम।
मैं तो काहू बातन में नाही तरसायो है।।
दधि की मटकी भरी आंगन में आन धरी,
तोल तोल लीजों भटू जेतो जाको खायो है।
सूरदास प्रभु प्यारे निमिष न होजे न्यारे,
कान्ह जैसो पूत मैं तो पूरे पुन्यनसों पायो है।।
गोपियां कहती हैं कि मैया, इस संसार में अब तक योग की जो बड़ी-बड़ी प्रणालियां हैं, हमने उनको सुना है। लोग कहते हैं कि हम राजयोगी हैं, मन्त्रयोगी हैं, लययोगी हैं, हठयोगी हैं। परन्तु तुम्हारा यह बेटा तो एक नये योग का ही आचार्य है। इसने स्तेययोग (चौर्ययोग) का आविर्भाव किया है। (गोपियों ने सही ही कहा है क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही आकर भक्तों के हृदयरूप मक्खन को लूटकर ले जाते हैं।)
गोपियां कहतीं हैं कि–अरी मैया !  तुम्हारे लाला की बातें हम कहां तक सुनाएं। कहता है कि आज हमारे गांव में बड़े-बड़े रामभक्त पधारे हैं। अयोध्या से आये हैं, दण्डकारण्य से आये है, किष्किन्धा से आये हैं और ये सब लोग बड़े-बड़े महात्मा हैं। इसलिए तुम्हारे घर में जितना भी दधि-माखन है, सब निकालो और महात्माओं को अर्पण करो। हम लोग उसकी बात मानकर अपने-अपने घर से दूध-दही-मक्खन लेकर पहुँचती हैं कि आज महात्माओं के दर्शन होंगे। लेकिन वहां जाकर देखती क्या हैं कि पाँत-की-पाँत बैठी है, महात्माओं की नहीं, बंदरों की। तुम्हारा लाला उन्हीं बंदरों को सारा दूध-दही-माखन परस देता है और यदि उन हजारों बन्दरों में से किसी एक बंदर ने नहीं खाया तो हमें कहता है कि तुम्हारा दूध, दही, माखन खराब है, तुम्हारे घर का बर्तन अशुद्ध है और बर्तन ही फोड़ देता है।
यशोदाजी ने कहा–अरी सखी ! क्या आप लोगों को पता चल जाता है कि आज कन्हैया आने वाला है। गोपी ने कहा–मां, पता तो चल जाता है। जिस दिन वह आने वाला होता है, उस दिन उसकी बहुत याद आती है। मां मैं अपने घर का काम करती हूँ तो भी मुझे कन्हैया ही दीख पड़ता है। कभी ऐसा लगता है कि कन्हैया दांये खड़ा है, कभी लगता है कि बांये खड़ा है। मां आपके लाला को देखने के बाद मुझे कुछ होश ही नहीं रहता है। और मैं खाना बनाने में गलती कर देती हूँ। खीर में नमक डाल देती हूँ। इसलिए मैं चाहती हूँ कि मैं खाना बनाते समय कन्हैया को याद न करूँ। धन्य है व्रज की गोपी, जो भगवान को भूलने का प्रयत्न करती है पर श्रीकृष्ण उससे भुलाये नहीं जाते हैं। इसीलिए व्यासजी ने गोपियों को ‘प्रेम संन्यासिनी’ की उपाधि दी है।
यशोदाजी ने कहा जब तुम्हे पता चल जाता है कि कन्हैया आने वाला है तो उस दिन तुम घर में कुछ खाने का सामान ही न रखना। एक गोपी बोली–मां, मैंने ऐसा ही किया। कन्हैया जब घर आया तो उसे कुछ नहीं मिला तो वह रूठ गया। मेरा बच्चा पालने में सोया था। उसने मेरे बच्चे को जगाया। कन्हैया ने कहा कि मेरा ऐसा नियम है कि जिसके घर जाता हूँ, घर के स्वामी का कल्याण करता हूँ और  प्रसाद देकर घर छोड़ता हूँ। पर तेरी मां ने कुछ रखा ही नहीं, मैं तुम्हें क्या प्रसाद दूँ? लो मेरा प्रसाद। ऐसा कहकर मेरे बच्चे को चुटकी काटने लगा। माँ ! घर में अगर कुछ नहीं रखते तो वह बच्चों को रुलाता है। कन्हैया जब आपके घर आता है और उसका सम्मान नहीं होता तो वह रुलाता है।
गोपियों ने कहा–माँ, हम क्या कहें ! तुम्हारे लाला का जहां हाथ नहीं पहुँचता, वहां वह ऊखल पर, पीढ़ा पर किसी सखा को बैठा देता है और स्वयं उसके कन्धों पर चढ़ कर गोरस (दूध, दही, माखन) उतार लेता है। बड़ी पक्की पहचान है इसकी कि किस बर्तन में क्या रखा है। यह बहुत ऊपर रखे बर्तनों में नुकीले डंडे से छेद कर देता है और जब दूध गिरने लगता है, तब साथी ग्वालबालों के साथ नीचे हाथ लगाकर पीने लगता है।
यशोदामाता ने कहा–तुम बर्तनों को अँधेरे में रख दिया करो। उसे अँधेरे से डर लगता है। गोपियों ने कहा–क्या कहती हो मैया, एक तो तुमने उसे ज्योतिर्मय मणि पहना रखी है। दूसरे उसका तो अंग ही प्रदीप है अर्थात् इसके शरीर से ही क्या कम प्रकाश निकलता है? जिस घर में घुसता है, वहां हीरे की तरह चमक हो जाती है। जरा हँस देता है तो पूरे घर में चांदनी छिटक जाती है।
एक दूसरी गोपी बोली–मैया, यह इतना चालाक है कि इसके सामने किसी की नहीं चलती। एक ग्वालिन बड़ी बुद्धिमती थी। उसने अपना सारा दूध-दही-मक्खन ऊपर छींके पर रख दिया और नीचे खाट बिछाकर सो गयी। इस पर तुम्हारे लाला ने यह चाल चली कि पानी में से एक लम्बी कोइन (पोली नाल) निकालकर ले आये और उसका एक छोर डाल दिया दूध की मटकी में और दूसरा छोर मुँह में डाल कर नीचे से सप्प-सप्प करके दूध पीने लगे। आवाज होने पर जब गोपी उठी तो उसके मुँह पर ऐसी फूँक मारी कि दूध उसकी आँखों में चला गया। अब जब तक वह अपनी आँख मले, तब तक कन्हैया नौ-दो-ग्यारह हो गया।
इससे भी अधिक बड़ा उलाहना है एक गोपी का–’माँ, मैंने ऐसा किया कि इसे कुछ भी न मिले। कुछ भी न मिलने पर लिपा-पुता घर मलिन (गंदा) कर आया। हम सब पर क्रुद्ध हो रहा था। कहता था–’यह कैसा गोप का घर कि इसमें गोरस ही नहीं।’ बहुत अटपटी बातें कहता था। कहीं कन्हैया किसी गोपी की चोटी खाट से बाँध आया है; कहीं किसी सोती गोपी के पूरे मुख पर काजल लगा आया है। वह चंचल इतना सावधान रहता है कि पकड़ा नहीं जाता और यदि गलती से पकड़ भी लें तो हाथ जोड़ता है, विनय करता है कि–’गोपी तेरे हाथ जोड़ूँ, पांव पड़ूँ’ और छूटने पर फिर वही धृष्टता।
तनिक देखो तो इसकी ओर, वहां तो चोरी के अनेकों उपाय करके काम बनाता है और यहां मालूम हो रहा है, मानो पत्थर की मूर्ति खड़ी हो। वाह रे भोले-भाले साधु ! इस तरह गोपियों के उलाहनों का कोई ठिकाना नहीं।
गोपियां यह सब कहती जातीं और यशोदाजी की आँख बचाकर श्रीकृष्ण के भयभीत मुखारबिन्द को देखती भी जातीं। गोपियां एक बार मैया की ओर देखती हैं और दूसरी बार श्रीकृष्ण की ओर देखती हैं। वास्तव में गोपियां तो भयभीत श्रीकृष्ण के मुख का दर्शन कर रही हैं। उनके मन में होता है कुछ, दिखातीं हैं कुछ, और देखती हैं कुछ। उनका प्रयोजन बस इतना ही है कि उन्हें कन्हैया के मुख का दर्शन करना है। किन्तु नन्दरानी यशोदाजी से गोपियों का मनोभाव छिपा नहीं रहता, वे उसे ताड़ लेतीं और लाला को उलाहना देना तो दूर रहा, उनके हृदय में वात्सल्य की बाढ़ उमड़ पड़ती। वे गोपियों से हँसकर कहतीं–अरी गोपियों ! तुम लोग मेरी ओर देखकर बात करो। हमारे लाला की ओर छिप-छिप क्या देख रही हो।
यशोदाजी ने कहा–’अरी सखी ! तुम सब कहती हो कि कन्हैया शरारत करता है पर जब मैं उससे पूछती हूँ तब वह इन्कार कर देता है। कन्हैया तो कहता है–’ये गोपी मुझसे अपने घर का काम करवा रही थी। इसके दही की मटकी में चीटियां लग गयी थीं, मैं तो उनको निकाल रहा था और यह अपने पति के साथ सो रही थी’–
सुन मैया याके गुण मोसों, इन मोहि लियो बुलायी।
दधि में परी सहत की चेंटी मोपें सबै कढ़ायी।।
टहल करत याके घर की मैं, यह पति मिल संग सोई।
सूर वचन सुन हँसी यशोदा ग्वाल रही मुखजोई।।
यशोदाजी ने कहा–’ऐसा करो जब वह तुम्हारे घर आ जाय तो उसे पकड़कर मेरे घर ले आना। मैं उसे सजा दूंगी।’ मैया सबकी सुनती है, किन्तु अपने पुत्र का झुका हुआ भोला मुख देखकर उसे हँसी आ जाती है।

माखनचोरी से सम्बन्धित सरस कथा

प्रभावती नाम की एक गोपी ने कन्हैया को पकड़ने का बीड़ा उठाया। कन्हैया ने प्रभावती से कहा–कल मैं तुम्हारे घर आने वाला हूँ। प्रभावती ने घर पर दही, माखन सब कुछ रखा है। प्रभावती ने सोचा कि कन्हैया जब माखन खायेगा, तब ही उसे पकड़ लूँगी। दूसरे दिन कन्हैया अपनी गोप-मंडली के साथ प्रभावती के घर आ पहुँचा। कन्हैया अपने मित्रों के साथ माखन खाने लगा। प्रभावती छिपकर देख रही थी। उसे बहुत आनन्द आ रहा था। धीरे-धीरे वह बाहर निकली और उसने कन्हैया को पकड़ लिया। सब गोपबालक भाग गये। कन्हैया ने प्रभावती से छोड़ने की बहुत मनुहार की पर वह न मानी और कन्हैया को पकड़कर यशोदामाता के पास ले जाने लगी। प्रभावती का एक पुत्र था जो कि कन्हैया की मित्र-मंडली में शामिल था। उसने देखा कि मां तो कन्हैया को पकड़कर यशोदामाता के पास ले जा रही है। वह अपनी माता से कहने लगा–मां, मैंने ही कन्हैया को अपने घर बुलाया था। यशोदा मां मुझे हर रोज माखन देती है, इससे मैंने आज कन्हैया को अपने घर निमन्त्रण दिया है। लाला ने चोरी नहीं की है। तुम कन्हैया को छोड़ दो, मुझको सजा दो। सखा-मंडली के सब बालक रोने लगे कि आज तो यशोदामाता कन्हैया को मारेंगी।
कन्हैया ने इशारों मे सखाओं से कहा–तुम लोग घबराना नहीं, मैं आज प्रभावती को सबक सिखाने वाला हूँ। प्रभावती कन्हैया को पकड़कर ले जाने लगी तो उसे अभिमान आ गया कि मैं ही कन्हैया को पकड़ सकी हूँ। मनुष्य को अभिमान आते ही ईश्वर छिटक (दूर हो) जाते हैं।
रास्ते में प्रभावती ने घूँघट निकाला। कन्हैया ने अपने नाखूनों से उसकी चिकोटी काट ली। प्रभावती ने अपना हाथ बदला। कन्हैया ने चालाकी से अपना हाथ छुड़ाकर उसके पुत्र का हाथ ही उसके हाथ में दे दिया और स्वयं दौड़ते हुए अपने घर पहुँच गये। प्रभावती ने घूँघट निकाला हुआ था और उसे नंदभवन पहुँचने की जल्दी थी इसलिए उसे कुछ भी पता न चला। कन्हैया घर पहुँच गया और पीछे से प्रभावती आयी। प्रभावती ने यशोदामाता से कहा–माँ ! देखिये ! आपके कन्हैया को पकड़कर ले आयी हूँ। यशोदाजी हँसने लगीं और प्रभावती से कहा–कन्हैया तो भीतर है। प्रभावती ने घूँघट हटाकर देखा तो वह अपने ही पुत्र को पकड़े हुई थी। प्रभावती अपने पुत्र को मारने लगी। पर वह कन्हैया के लिए चुपचाप मार सहता रहा। जो परमात्मा (परोपकार) के लिए मार खाता है वह परमात्मा का प्यारा होता है। प्रभावती को आश्चर्य हुआ। उसने यशोदामाता से कहा–माँ, रास्ते में कुछ गड़बड़ हो गयी। यशोदामाता ने उसकी बात नहीं मानी–
‘नरसैया का स्वामी सच्चा, झूठी सब व्रज नारी रे’
दु:खी मन से प्रभावती अपने घर को चल दी। श्रीकृष्ण ने एक चाल चली। उन्होंने अपना एक स्वरूप यशोदाजी के पास रखा और दूसरे स्वरूप से प्रभावती के पीछे चलने लगे। रास्ते में कन्हैया ने प्रभावती के ससुर की जोर से आवाज निकाल कर कहा–अरी प्रभावती ! प्रभावती ने मुड़कर देखा, तो कन्हैया खड़ा था। कन्हैया ने कहा–मैं तुम्हें विशेष रूप से कहने आया हूँ अगर तुम मेरे या मेरे मित्रों के पीछे पड़ोगी तो मैं तुम्हारी सारे गाँव में फजीहत करूंगा। प्रभावती ने कहा–कन्हैया, तुम्हें ऐसा कौन सिखाता है? कन्हैया ने कहा–मुझे कौन सिखायेगा? मैं ही सभी को सिखाता हूँ–
वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्।
देवकी परमानन्दं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्।।
भगवान श्रीकृष्ण की यह माखनचोरी, यह मुग्धभाव, यह शैशवावस्था का नटखटपन कितना विस्मित कर देने वाला है। जो विश्वनायक भगवान माया के दृढ़ सूत्र में बाँध-बाँधकर अखिल विश्व को निरन्तर नाच नचाते हैं, वही रसस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण गोपियों की प्रेम-माया से मोहित होकर सदा उनके आँगन में नाचते हैं। उनके भाग्य की सराहना और उनके प्रेम का महत्व कौन बतला सकता है? व्रज के शुद्ध प्रेम के वशीभूत हो षडैश्वर्यमय भगवान श्रीकृष्ण अपने स्वरूप को सम्पूर्णरूप से भूल जाते हैं–कितने बड़े हैं, कितने छोटे हो जाते हैं। यही प्रेम माधुर्य है। जिसके भय से यमराज डरते हैं, वह मां के भय से कांपते हुए झूठ बोलने लगते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की इस भक्त पराधीनता में कितना माधुर्य है।
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जन्माष्टमी व्रत कथा

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स्कन्दपुराण के मतानुसार जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को नहीं करता, वह मनुष्य जंगल में सर्प और व्याघ्र होता है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि कलियुग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे। यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करें। भविष्यपुराण का वचन है- श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है। केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करना कहा गया है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो 'जयंती' नाम से संबोधित की जाएगी। वह्निपुराण का वचन है कि कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अतः उसमें प्रयत्न से उपवास करना चाहिए।

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कथा

इंद्र ने कहा है- हे ब्रह्मपुत्र, हे मुनियों में श्रेष्ठ, सभी शास्त्रों के ज्ञाता, हे देव, व्रतों में उत्तम उस व्रत को बताएँ, जिस व्रत से मनुष्यों को मुक्ति, लाभ प्राप्त हो तथा हे ब्रह्मन्‌! उस व्रत से प्राणियों को भोग व मोक्ष भी प्राप्त हो जाए। इंद्र की बातों को सुनकर नारदजी ने कहा- त्रेतायुग के अन्त में और द्वापर युग के प्रारंभ समय में निन्दितकर्म को करने वाला कंस नाम का एक अत्यंत पापी दैत्य हुआ। उस दुष्ट व नीच कर्मी दुराचारी कंस की देवकी नाम की एक सुंदर बहन थी। देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र कंस का वध करेगा।
नारदजी की बातें सुनकर इंद्र ने कहा- हे महामते! उस दुराचारी कंस की कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। क्या यह संभव है कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र अपने मामा कंस की हत्या करेगा। इंद्र की सन्देहभरी बातों को सुनकर नारदजी ने कहा-हे अदितिपुत्र इंद्र! एक समय की बात है। उस दुष्ट कंस ने एक ज्योतिषी से पूछा कि ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ज्योतिर्विद! मेरी मृत्यु किस प्रकार और किसके द्वारा होगी। ज्योतिषी बोले-हे दानवों में श्रेष्ठ कंस! वसुदेव की धर्मपत्नी देवकी जो वाक्‌पटु है और आपकी बहन भी है। उसी के गर्भ से उत्पन्न उसका आठवां पुत्र जो कि शत्रुओं को भी पराजित कर इस संसार में 'कृष्ण' के नाम से विख्यात होगा, वही एक समय सूर्योदयकाल में आपका वध करेगा।
ज्योतिषी की बातें सुनकर कंस ने कहा- हे दैवज, बुद्धिमानों में अग्रण्य अब आप यह बताएं कि देवकी का आठवां पुत्र किस मास में किस दिन मेरा वध करेगा। ज्योतिषी बोले- हे महाराज! माघ मास की शुक्ल पक्ष की तिथि को सोलह कलाओं से पूर्ण श्रीकृष्ण से आपका युद्ध होगा। उसी युद्ध में वे आपका वध करेंगे। इसलिए हे महाराज! आप अपनी रक्षा यत्नपूर्वक करें। इतना बताने के पश्चात नारदजी ने इंद्र से कहा- ज्योतिषी द्वारा बताए गए समय पर हीकंस की मृत्युकृष्ण के हाथ निःसंदेह होगी। तब इंद्र ने कहा- हे मुनि! उस दुराचारी कंस की कथा का वर्णनकीजिए और बताइए कि कृष्ण का जन्म कैसे होगा तथा कंस की मृत्यु कृष्ण द्वारा किस प्रकार होगी।
इंद्र की बातों को सुनकर नारदजी ने पुनः कहना प्रारंभ किया- उस दुराचारी कंस ने अपने एक द्वारपाल से कहा- मेरी इस प्राणों से प्रिय बहन की पूर्ण सुरक्षा करना। द्वारपाल ने कहा- ऐसा ही होगा। कंस के जाने के पश्चात उसकी छोटी बहन दुःखित होते हुए जल लेने के बहाने घड़ा लेकर तालाब पर गई। उस तालाब के किनारे एक घनघोर वृक्ष के नीचे बैठकर देवकी रोने लगी। उसी समय एक सुंदर स्त्री जिसका नाम यशोदा था, उसने आकर देवकी से प्रिय वाणी में कहा- हे कान्ते! इस प्रकार तुम क्यों विलाप कर रही हो। अपने रोने का कारण मुझसे बताओ। तब दुःखित देवकी ने यशोदा से कहा- हे बहन! नीच कर्मों में आसक्त दुराचारी मेरा ज्येष्ठ भ्राता कंस है। उस दुष्ट भ्राता ने मेरे कई पुत्रों का वध कर दिया। इस समय मेरे गर्भ में आठवाँ पुत्र है। वह इसका भी वध कर डालेगा। इस बात में किसी प्रकार का संशय या संदेह नहीं है, क्योंकि मेरे ज्येष्ठ भ्राता को यह भय है कि मेरे अष्टम पुत्र से उसकी मृत्यु अवश्य होगी।
देवकी की बातें सुनकर यशोदा ने कहा- हे बहन! विलाप मत करो। मैं भी गर्भवती हूँ। यदि मुझे कन्या हुई तो तुम अपने पुत्र के बदले उस कन्या को ले लेना। इस प्रकार तुम्हारा पुत्र कंस के हाथों मारा नहीं जाएगा।
तदनन्तर कंस ने अपने द्वारपाल से पूछा- देवकी कहाँ है? इस समय वह दिखाई नहीं दे रही है। तब द्वारपाल ने कंस से नम्रवाणी में कहा- हे महाराज! आपकी बहन जल लेने तालाब पर गई हुई हैं। यह सुनते ही कंस क्रोधित हो उठा और उसने द्वारपाल को उसी स्थान पर जाने को कहा जहां वह गई हुई है। द्वारपाल की दृष्टि तालाब के पास देवकी पर पड़ी। तब उसने कहा कि आप किस कारण से यहां आई हैं। उसकी बातें सुनकर देवकी ने कहा कि मेरे गृह में जल नहीं था, जिसे लेने मैं जलाशय पर आई हूँ। इसके पश्चात देवकी अपने गृह की ओर चली गई।
कंस ने पुनः द्वारपाल से कहा कि इस गृह में मेरी बहन की तुम पूर्णतः रक्षा करो। अब कंस को इतना भय लगने लगा कि गृह के भीतर दरवाजों में विशाल ताले बंद करवा दिए और दरवाजे के बाहर दैत्यों और राक्षसों को पहरेदारी के लिए नियुक्त कर दिया। कंस हर प्रकार से अपने प्राणों को बचाने के प्रयास कर रहा था। एक समय सिंह राशि के सूर्य में आकाश मंडल में जलाधारी मेघों ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया। भादौ मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को घनघोर अर्द्धरात्रि थी। उस समय चंद्रमा भी वृष राशि में था, रोहिणी नक्षत्र बुधवार के दिन सौभाग्ययोग से संयुक्त चंद्रमा के आधी रात में उदय होने पर आधी रात के उत्तर एक घड़ी जब हो जाए तो श्रुति-स्मृति पुराणोक्त फल निःसंदेह प्राप्त होता है।
इस प्रकार बताते हुए नारदजी ने इंद्र से कहा- ऐसे विजय नामक शुभ मुहूर्त में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ और श्रीकृष्ण के प्रभाव से ही उसी क्षण बन्दीगृह के दरवाजे स्वयं खुल गए। द्वार पर पहरा देने वाले पहरेदार राक्षस सभी मूर्च्छित हो गए। देवकी ने उसी क्षण अपने पति वसुदेव से कहा- हे स्वामी! आप निद्रा का त्याग करें और मेरे इस अष्टम पुत्र को गोकुल में ले जाएँ, वहाँ इस पुत्र को नंद गोप की धर्मपत्नी यशोदा को दे दें। उस समय यमुनाजी पूर्णरूपसे बाढ़ग्रस्त थीं, किन्तु जब वसुदेवजी बालक कृष्ण को सूप में लेकर यमुनाजी को पार करने के लिए उतरे उसी क्षण बालक के चरणों का स्पर्श होते ही यमुनाजी अपने पूर्व स्थिर रूप में आ गईं। किसी प्रकार वसुदेवजी गोकुल पहुँचे और नंद के गृह में प्रवेश कर उन्होंने अपना पुत्र तत्काल उन्हें दे दिया और उसके बदले में उनकी कन्या ले ली। वे तत्क्षण वहां से वापस आकर कंस के बंदी गृह में पहुँच गए।
प्रातःकाल जब सभी राक्षस पहरेदार निद्रा से जागे तो कंस ने द्वारपाल से पूछा कि अब देवकी के गर्भ से क्या हुआ? इस बात का पता लगाकर मुझे बताओ। द्वारपालों ने महाराज की आज्ञा को मानते हुए कारागार में जाकर देखा तो वहाँ देवकी की गोद में एक कन्या थी। जिसे देखकर द्वारपालों ने कंस को सूचित किया, किन्तु कंस को तो उस कन्या से भय होने लगा। अतः वह स्वयं कारागार में गया और उसने देवकी की गोद से कन्या को झपट लिया और उसे एक पत्थर की चट्टान पर पटक दिया किन्तु वह कन्या विष्णु की माया से आकाश की ओर चली गई और अंतरिक्ष में जाकर विद्युत के रूप में परिणित हो गई।
उसने कंस से कहा कि हे दुष्ट! तुझे मारने वाला गोकुल में नंद के गृह में उत्पन्न हो चुका है और उसी से तेरी मृत्यु सुनिश्चित है। मेरा नाम तो वैष्णवी है, मैं संसार के कर्ता भगवान विष्णु की माया से उत्पन्न हुई हूँ, इतना कहकर वह स्वर्ग की ओर चली गई। उस आकाशवाणी को सुनकर कंस क्रोधित हो उठा। उसने नंदजी के गृह में पूतना राक्षसी को कृष्ण का वध करने के लिए भेजा किन्तु जब वह राक्षसी कृष्ण को स्तनपान कराने लगी तो कृष्ण ने उसके स्तन से उसके प्राणों को खींच लिया और वह राक्षसी कृष्ण-कृष्ण कहते हुए मृत्यु को प्राप्त हुई।
जब कंस को पूतना की मृत्यु का समाचार प्राप्त हुआ तो उसने कृष्ण का वध करने के लिए क्रमशः केशी नामक दैत्य को अश्व के रूप में उसके पश्चात अरिष्ठ नामक दैत्य को बैल के रूप में भेजा, किन्तु ये दोनों भी कृष्ण के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुए। इसके पश्चात कंस ने काल्याख्य नामक दैत्य को कौवे के रूप में भेजा, किन्तु वह भी कृष्ण के हाथों मारा गया। अपने बलवान राक्षसों की मृत्यु के आघात से कंस अत्यधिक भयभीत हो गया। उसने द्वारपालों को आज्ञा दी कि नंद को तत्काल मेरे समक्ष उपस्थित करो। द्वारपाल नंद को लेकर जब उपस्थित हुए तब कंस ने नंदजी से कहा कि यदि तुम्हें अपने प्राणों को बचाना है तो पारिजात के पुष्प ले लाओ। यदि तुम नहीं ला पाए तो तुम्हारा वध निश्चित है।
कंस की बातों को सुनकर नंद ने 'ऐसा हीहोगा' कहा और अपने गृह की ओर चले गए। घर आकर उन्होंने संपूर्ण वृत्तांत अपनी पत्नी यशोदा को सुनाया, जिसे श्रीकृष्ण भी सुन रहे थे। एक दिन श्रीकृष्ण अपने मित्रों के साथ यमुना नदी के किनारे गेंद खेल रहे थे और अचानक स्वयं ने ही गेंद को यमुना में फेंक दिया। यमुना में गेंद फेंकने का मुख्य उद्देश्य यही था कि वे किसी प्रकार पारिजात पुष्पों को ले आएँ। अतः वे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर यमुना में कूद पड़े।
कृष्ण के यमुना में कूदने का समाचार श्रीधर नामक गोपाल ने यशोदा को सुनाया। यह सुनकर यशोदा भागती हुई यमुना नदी के किनारे आ पहुँचीं और उसने यमुना नदी की प्रार्थना करते हुए कहा- हे यमुना! यदि मैं बालक को देखूँगी तो भाद्रपद मास की रोहिणी युक्त अष्टमी का व्रत अवश्य करूंगी क्योंकि दया, दान, सज्जन प्राणी, ब्राह्मण कुल में जन्म, रोहिणियुक्त अष्टमी, गंगाजल, एकादशी, गया श्राद्ध और रोहिणी व्रत ये सभी दुर्लभ हैं।
हजारों अश्वमेध यज्ञ, सहस्रों राजसूय यज्ञ, दान तीर्थ और व्रत करने से जो फल प्राप्त होता है, वह सब कृष्णाष्टमी के व्रत को करने से प्राप्त हो जाता है। यह बात नारद ऋषि ने इंद्र से कही। इंद्र ने कहा- हे मुनियों में श्रेष्ठ नारद! यमुना नदी में कूदने के बाद उस बालरूपी कृष्ण ने पाताल में जाकर क्या किया? यह संपूर्ण वृत्तांत भी बताएँ। नारद ने कहा- हे इंद्र! पाताल में उस बालक से नागराज की पत्नी ने कहा कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो, कहाँ से आए हो और यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?
नागपत्नी बोलीं- हे कृष्ण! क्या तूने द्यूतक्रीड़ा की है, जिसमें अपना समस्त धन हार गया है। यदि यह बात ठीक है तो कंकड़, मुकुट और मणियों का हार लेकर अपने गृह में चले जाओ क्योंकि इस समय मेरे स्वामी शयन कर रहे हैं। यदि वे उठ गए तो वे तुम्हारा भक्षण कर जाएँगे। नागपत्नी की बातें सुनकर कृष्ण ने कहा- 'हे कान्ते! मैं किस प्रयोजन से यहाँ आया हूँ, वह वृत्तांत मैं तुम्हें बताता हूँ। समझ लो मैं कालियानाग के मस्तक को कंस के साथ द्यूत में हार चुका हूं और वही लेने मैं यहाँ आया हूँ। बालक कृष्ण की इस बात को सुनकर नागपत्नी अत्यंत क्रोधित हो उठीं और अपने सोए हुए पति को उठाते हुए उसने कहा- हे स्वामी! आपके घर यह शत्रु आया है। अतः आप इसका हनन कीजिए।
अपनी स्वामिनी की बातों को सुनकर कालियानाग निन्द्रावस्था से जाग पड़ा और बालक कृष्ण से युद्ध करने लगा। इस युद्ध में कृष्ण को मूर्च्छा आ गई, उसी मूर्छा को दूर करने के लिए उन्होंने गरुड़ का स्मरण किया। स्मरण होते ही गरुड़ वहाँ आ गए। श्रीकृष्ण अब गरुड़ पर चढ़कर कालियानाग से युद्ध करने लगे और उन्होंने कालियनाग को युद्ध में पराजित कर दिया।
अब कलियानाग ने भलीभांति जान लिया था कि मैं जिनसे युद्ध कर रहा हूँ, वे भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ही हैं। अतः उन्होंने कृष्ण के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया और पारिजात से उत्पन्न बहुत से पुष्पों को मुकुट में रखकर कृष्ण को भेंट किया। जब कृष्ण चलने को हुए तब कालियानाग की पत्नी ने कहा हे स्वामी! मैं कृष्ण को नहीं जान पाई। हे जनार्दन मंत्र रहित, क्रिया रहित, भक्तिभाव रहित मेरी रक्षा कीजिए। हे प्रभु! मेरे स्वामी मुझे वापस दे दें। तब श्रीकृष्ण ने कहा- हे सर्पिणी! दैत्यों में जो सबसे बलवान है, उस कंस के सामने मैं तेरे पति को ले जाकर छोड़ दूँगा अन्यथा तुम अपने गृह को चली जाओ। अब श्रीकृष्ण कालियानाग के फन पर नृत्य करते हुए यमुना के ऊपर आ गए।
तदनन्तर कालिया की फुंकार से तीनों लोक कम्पायमान हो गए। अब कृष्ण कंस की मथुरा नगरी को चल दिए। वहां कमलपुष्पों को देखकर यमुनाके मध्य जलाशय में वह कालिया सर्प भी चला गया।
इधर कंस भी विस्मित हो गया तथा कृष्ण प्रसन्नचित्त होकर गोकुल लौट आए। उनके गोकुल आने पर उनकी माता यशोदा ने विभिन्न प्रकार के उत्सव किए। अब इंद्र ने नारदजी से पूछा- हे महामुने! संसार के प्राणी बालक श्रीकृष्ण के आने पर अत्यधिक आनंदित हुए। आखिर श्रीकृष्ण ने क्या-क्या चरित्र किया? वह सभी आप मुझे बताने की कृपा करें। नारद ने इंद्र से कहा- मन को हरने वाला मथुरा नगर यमुना नदी के दक्षिण भाग में स्थित है। वहां कंस का महाबलशायी भाई चाणूर रहता था। उस चाणूर से श्रीकृष्ण के मल्लयुद्ध की घोषणा की गई। हे इंद्र!
कृष्ण एवं चाणूर का मल्लयुद्ध अत्यंत आश्चर्यजनक था। चाणूर की अपेक्षा कृष्ण बालरूप में थे। भेरी शंख और मृदंग के शब्दों के साथ कंस और केशी इस युद्ध को मथुरा की जनसभा के मध्य में देख रहे थे। श्रीकृष्ण ने अपने पैरों को चाणूर के गले में फँसाकर उसका वध कर दिया। चाणूर की मृत्यु के पश्चात उनका मल्लयुद्ध केशी के साथ हुआ। अंत में केशी भी युद्ध में कृष्ण के द्वारा मारा गया। केशी के मृत्युपरांत मल्लयुद्ध देख रहे सभी प्राणी श्रीकृष्ण की जय-जयकार करने लगे। बालक कृष्ण द्वारा चाणूर और केशी का वध होना कंस के लिए अत्यंत हृदय विदारक था। अतः उसने सैनिकों को बुलाकर उन्हें आज्ञा दी कि तुम सभी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर कृष्ण से युद्ध करो।
हे इंद्र! उसी क्षण श्रीकृष्ण ने गरुड़, बलराम तथा सुदर्शन चक्र का ध्यान किया, जिसके परिणामस्वरूप बलदेवजी सुदर्शन चक्र लेकर गरुड़ पर आरूढ़ होकर आए। उन्हें आता देख बालक कृष्ण ने सुदर्शन चक्र को उनसे लेकर स्वयं गरुड़ की पीठ पर बैठकर न जाने कितने ही राक्षसों और दैत्यों का वध कर दिया, कितनों के शरीर अंग-भंग कर दिए। इस युद्ध में श्रीकृष्ण और बलदेव ने असंख्य दैत्यों का वध किया। बलरामजी ने अपने आयुध शस्त्र हल से और कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से माघ मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को विशाल दैत्यों के समूह का सर्वनाश किया।
जब अन्त में केवल दुराचारी कंस ही बच गया तो कृष्ण ने कहा- हे दुष्ट, अधर्मी, दुराचारी अब मैं इस महायुद्ध स्थल पर तुझसे युद्ध कर तथा तेरा वध कर इस संसार को तुझसे मुक्त कराऊँगा। यह कहते हुए श्रीकृष्ण ने उसके केशों को पकड़ लिया और कंस को घुमाकर पृथ्वी पर पटक दिया, जिससे वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। कंस के मरने पर देवताओं ने शंखघोष व पुष्पवृष्टि की। वहां उपस्थित समुदाय श्रीकृष्ण की जय-जयकार कर रहा था। कंस की मृत्यु पर नंद, देवकी, वसुदेव, यशोदा और इस संसार के सभी प्राणियों ने हर्ष पर्व मनाया।

विधि

इस कथा को सुनने के पश्चात इंद्र ने नारदजी से कहा- हे ऋषि इस कृष्ण जन्माष्टमी का पूर्ण विधान बताएं एवं इसके करने से क्या पुण्य प्राप्त होता है, इसके करने की क्या विधि है?
नारदजी ने कहा- हे इंद्र! भाद्रपद मास की कृष्णजन्माष्टमी को इस व्रत को करना चाहिए। उस दिन ब्रह्मचर्य आदि नियमों का पालन करते हुए श्रीकृष्ण का स्थापन करना चाहिए। सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की मूर्ति स्वर्ण कलश के ऊपर स्थापित कर चंदन, धूप, पुष्प, कमलपुष्प आदि से श्रीकृष्ण प्रतिमा को वस्त्र से वेष्टित कर विधिपूर्वक अर्चन करें। गुरुचि, छोटी पीतल और सौंठ को श्रीकृष्ण के आगे अलग-अलग रखें। इसके पश्चात भगवान विष्णु के दस रूपों को देवकी सहित स्थापित करें।
हरि के सान्निध्य में भगवान विष्णु के दस अवतारों, गोपिका, यशोदा, वसुदेव, नंद, बलदेव, देवकी, गायों, वत्स, कालिया, यमुना नदी, गोपगण और गोपपुत्रों का पूजन करें। इसके पश्चात आठवें वर्ष की समाप्ति पर इस महत्वपूर्ण व्रत का उद्यापन कर्म भी करें।
यथाशक्ति विधान द्वारा श्रीकृष्ण की स्वर्ण प्रतिमा बनाएँ। इसके पश्चात 'मत्स्य कूर्म' इस मंत्र द्वारा अर्चनादि करें। आचार्य ब्रह्मा तथा आठ ऋत्विजों का वैदिक रीति से वरण करें। प्रतिदिन ब्राह्मण को दक्षिणा और भोजन देकर प्रसन्न करें।

पूर्ण विधि


उपवास की पूर्व रात्रि को हल्का भोजन करें और ब्रह्मचर्य का पालन करें। उपवास के दिन प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त हो जाएँ। पश्चात सूर्य, सोम, यम, काल, संधि, भूत, पवन, दिक्‌पति, भूमि, आकाश, खेचर, अमर और ब्रह्मादि को नमस्कार कर पूर्व या उत्तर मुख बैठें। इसके बाद जल, फल, कुश और गंध लेकर संकल्प करें-
ममाखिलपापप्रशमनपूर्वक सर्वाभीष्ट सिद्धये
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये॥
अब मध्याह्न के समय काले तिलों के जल से स्नान कर देवकीजी के लिए 'सूतिकागृह' नियत करें। तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या चित्र स्थापित करें। मूर्ति में बालक श्रीकृष्ण को स्तनपान कराती हुई देवकी हों और लक्ष्मीजी उनके चरण स्पर्श किए हों अथवा ऐसे भाव हो। इसके बाद विधि-विधान से पूजन करें। पूजन में देवकी, वसुदेव, बलदेव, नंद, यशोदा और लक्ष्मी इन सबका नाम क्रमशः निर्दिष्ट करना चाहिए।
फिर निम्न मंत्र से पुष्पांजलि अर्पण करें- 'प्रणमे देव जननी त्वया जातस्तु वामनः।
वसुदेवात तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः।
सुपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं में गृहाणेमं नमोऽस्तु ते।'
अंत में प्रसाद वितरण कर भजन-कीर्तन करते हुए रात्रि जागरण करें।

उद्देश्य

जो व्यक्ति जन्माष्टमी के व्रत को करता है, वह ऐश्वर्य और मुक्ति को प्राप्त करता है। आयु, कीर्ति, यश, लाभ, पुत्र व पौत्र को प्राप्त कर इसी जन्म में सभी प्रकार के सुखों को भोग कर अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है। जो मनुष्य भक्तिभाव से श्रीकृष्ण की कथा को सुनते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। वे उत्तम गति को प्राप्त करते हैं।




भगवान श्रीकृष्ण की माखनचोरी लीला

ब्रज घर-घर प्रगटी यह बात। दधि माखन चोरी करि लै हरि, ग्वाल सखा सँग खात।। ब्रज-बनिता यह सुनि मन हरषित, सदन हमारैं आवैं। माखन खात अचानक...