समुद्र मंथन के समय हलाहल के निकलने के पश्चात् दरिद्रा की, तत्पश्चात् लक्ष्मी जी की उत्पत्ति हुई । इसलिए दरिद्रा को ज्येष्ठ भी कहते हैं । ज्येष्ठा का विवाह दु:सह ब्राह्मण के साथ हुआ । विवाह के बाद दु:सह मुनि अपनी पत्नी के साथ विचरण करने लगे । जिस देश में भगवान का उद्घोष होता, होम होता, वेदपाठ होता, भस्म लगाये लोग होते – वहां से ज्येष्ठा दोनों कान बंद कर दूर भाग जाती ।
यह देखकर दु:सह मुनि उद्विग्न हो गये । उन दिनों सब जगह धर्म की चर्चा और पुण्य कृत्य हुआ ही करते थे । अत: दरिद्रा भागते भागते थक गयी, तब उसे दु:सह मुनि निर्जन वन में ले गये । ज्येष्ठा डर रही थी कि मेरे पति मुझे छोड़कर किसी अन्य कन्या से विवाह न कर लें । दु:सह मुनि ने यह प्रतिज्ञा कर कि ‘मैं किसी अन्य कन्या से विवाह नहीं करूंगा ’ पत्नी को आश्वस्त कर दिया ।
आगे बढ़ने पर दु:सह मुनि ने महर्षि मार्कण्डेय को आते हुए देखा । उन्होंने महर्षि को साष्टांग प्रणाम किया और पूछा कि ‘इस भार्या के साथ मैं कहां रहूं और कहां न रहूं ?’ मार्कण्डेय मुनि ने पहले उन स्थानों को बताना आरंभ किया, जहां दरिद्रा को प्रवेश नहीं करना चाहिए –
‘जहां रुद्र के भक्त हों और भस्म लगाने वाले लोग हों, वहां तुम लोग प्रवेश न करना । जहां नारायण, गोविंद, शंकर, महादेव आदि भगवान के नाम का कीर्तन होता हो, वहां तुम दोनों को नहीं जाना चाहिए, क्योंकि आग उगलता हुआ विष्णु का चक्र उन लोगों के अशुभ को नाश करता रहता है । जिस घर में स्वाहा, वष्टकार और वेद का घोष होता हो, जहां के लोग नित्यकर्म में लगे हुए भगवान की पूजा में लगे हुए हों, उस घर को दूर से ही त्याग देना । जिस घर में भगवान की मूर्ति हो, गाएं हो, भक्त हों, उस घर में भी तुम दोनों मत घुसना ।’
तब दु:सह मुनि ने पूछा – ‘महर्षे ! अब आप हमें यह बताएं कि हमारे प्रवेश के स्थान कौन कौन से हैं ?’ महर्षि मार्कण्डेय जी ने कहा – ‘जहां पति पत्नी परस्पर झगड़ा करते हों, उस घर में तुम दोनों निर्भय होकर घुस जाओ । जहां भगवान की निंदा होती हो, जप, होम आदि न होते हों, भगवान के नाम नहीं लिए जाते हों, उस घर में घुस जाओ । जो लोग बच्चों को न देकर स्वयं खा लेते हों, उस घर में तुम दोनों घुस जाओ । जिस घर में कांटेदार, दूधवाले, पलाश के वृक्ष और निंब के वृक्ष हों, जिस घर में दोपहरिया, तगर, अपराजिता के फूल का पेड़ हो, वे घर तुम दोनों के रहने योग्य हैं, वहां अवश्य जाओ ।
जिस घर में केला, ताड़, तमाल, भल्लातक (भिलाव), इमली, कदंब, खैर के पेड़ हों, वहां तुम दरिद्रा के साथ घुस जाया करो । जो स्नान आदि मंगल कृत्य न करते हों, दांत मुख साफ नहीं करते, गंदेकपड़े पहनते, संध्याकाल में सोते या खाते हों, जुआ खेलते हों, ब्राह्मण के धन का हरम करते हों, दूसरे की स्त्री से संबंध रखते हों, हाथ – पैर न धोते हों, उन घरों में दरिद्रा के साथ तुम रहो ।’
मार्कण्डेय ऋषि के चले जाने के बाद दु:सह ने अपनी पत्नी दरिद्रा से कहा – ‘ज्येष्ठे ! तुम इस पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ जाओ । मैं रसातल जाकर रहने के स्थान का पता लगाता हूं ।’ दरिद्रा ने पूछा – ‘नाथ ! तब मैं खाऊंगी क्या ? मुझे कौन भोजन देगा ?’ दु:सह ने कहा – ‘प्रवेश के स्थान तो तुझे मालूम ही हो गये हैं, वहां घुसकर खा पी लेना । हां, यह याद रखना कि जो स्त्री पुष्प, धूप आदि से तुम्हारी पूजा करती हो, उसके घर में मत घुसना ।’ इतना कहकर दु:सह रसातल में चले गये ।
ज्येष्ठा वहीं बैठी हुई थी कि लक्ष्मी के साथ भगवान विष्णु वहां आ गये । ज्येष्ठा ने भगवान विष्णु से कहा – ‘मेरे पति रसातल चले गये हैं, मैं अब अनाथ हो गयी हूं, मेरी जीविका का प्रबंध कर दीजिये ।’ भगवान विष्णु ने कहा – ‘ज्येष्ठे ! जो माता पार्वती, शंकर और मेरे भक्तों की निंदा करते हैं, उनके सारे धन पर तुम्हारा ही अधिकार है । उनका तुम अच्छी तरह उपभोग करो । जो लोग भगवान शंकर की निंदा कर मेरी पूजा करते हैं, ऐसे मेरे भक्त अभागे होते हैं, उनके धन पर भी तुम्हारा ही अधिकार है ।’ इस प्रकार ज्येष्ठा को आश्वासन देकर भगवान विष्णु लक्ष्मी सहित अपने निवासस्थान वैकुण्ठ को चले गये |
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