जानिये अहंकारी करता है कौनसी गलती :
एक मूर्तिकार था। वह ऐसी मूर्तियां बनाता था, जो सजीव लगती थीं। लेकिन मूर्तिकार को अपनी इस कला पर अहंकार था। जब उसे लगने लगा कि उसकी मृत्यु आने वाली है तब उसने यमदूतों को भ्रम में डालने के लिए स्वयं की सजीव मूर्तियां बनाईं।
उसने अपने जैसी करीब 10 मूर्तियां बनाईं और उन मूर्तियों के बीच में जाकर बैठ गया। जब यमदूत आए तो उन्हें 11 मूर्तियां दिखाईं दीं। वह एक जैसी 11 मूर्तियां देखकर हैरान थे। वह एक विषम परिस्थिति में फंस गए। वो यह कि यदि मूर्ति तोड़ते हैं तो कलाकार के सम्मान को ठेस पहुंचेगी और यदि मूर्तिकार को यमलोक नहीं ले जाएंगे तो प्रकृति का नियम टूटा जाएगा।
तब एक यमदूत को मानव स्वभाव के एक गुण अहंकार के बारे में ध्यना आया। उसने कहा, इन 11 मूर्तियों में से एक मूर्ति में एक त्रुटि है। जैसे ही यमदूत ने यह वाक्य कहे, मूर्तिकार तुरंत बोल उठा, कौन सी मूर्ति में कैसी गलती?
फिर क्या था यमदूत उस मूर्तिकार को तुरंत यमलोक ले गए। उन्होंने कहा, अहंकारवश यही गलती तो की है तुमने कि तुम बोल उठे।
संक्षेप में
अहंकार मानव स्वभाव का एक हानिकारक गुण हैं। यह गुण जब स्वभाव में आ जाता है तो अपना ही नहीं औरों का भी नुकसान करवाता है।
अनुशासन बिना विकास नहीं
प्राचीन समय में एक नगर था। वहां एक मठ था। उस मठ के एक वरिष्ठ भिक्षु रहते थे। उनके पास अनेकों सिद्धियां थीं, जिसके चलते उनका सम्मान होता था। सम्मान बहुत बड़ी चीज होती है ये वो जानते थे। इसलिए उनकी महत्वाकांक्षा और कुछ न थी।
एक दिन दोपहर के समय वह अपने शिष्यों के साथ ध्यान कर रहे थे। अन्य भिक्षु शिष्य भूखे थे। तब वरिष्ठ भिक्षु ने कहा, ‘क्या तुम भूखे हो?’ वह भिक्षु बोला, ‘यदि हम भूखे भी हों तो क्या?’ मठ के नियम के अनुसार दोपहर में भोजन नहीं कर सकते हैं।
वरिष्ठ भिक्षु बोले, ‘तुम चिंता मत करो मेरे पास कुछ फल हैं।’ उन्होंने वह फल शिष्य भिक्षु को दे दिए। उसी मठ में एक अन्य भिक्षु थे वह मठ के नियमों को लेकर जागरुक रहते थे। वह एक सिद्ध पुरुष थे। लेकिन ये बाद उनके सिवाय और कोई नहीं जानता था।
अगले दिन उन्होंने घोषणा की जिसने भी भूख के कारण मठ का नियम तोड़ा है। उसे मठ से निष्काषित किया जाता है। तब उन वरिष्ठ भिक्षु ने अपना चोंगा उतारा और हमेशा के लिए उस मठ से चले गए।
संक्षेप में
अनुशासन के बिना सच्ची प्रगति संभव नहीं है। वरिष्ठ भिक्षु ने ऐसा ही किया। दरअसल यह याद रखना हमेशा जरूर है कि जीवन में जो सफलता या शक्ति हासिल हुई है, वह कठोर अनुशासन के फलस्वरूप ही मिलती है।
ऐसे टालिए बुरे समय को:
शाम का समय था। महात्मा बुद्ध एक शिला पर बैठे हुए थे। वह डूबते सूर्य को एकटक देख रहे थे। तभी उनका शिष्य आया और आया और गुस्से में बोला, ‘गुरुजी ‘रामजी’ नाम के जमींदार ने मेरा अपमान किया है। आप तुरंत चलें, उसे उसकी मूर्खता का सबक सिखाना होगा।
महात्मा बुद्ध मुस्कुराकर बोले, ‘प्रिय तुम बौद्ध हो, सच्चे बौद्ध का अपमान करने की शक्ति किसी में नहीं होती। तुम इस प्रसंग को भुलाने की कोशिश करो। जब प्रसंग को भुला दोगे, तो अपमान कहां बचेगा?’
लेकिन तथागत, उस धूर्त ने आपके प्रति भी अपशब्दों का प्रयोग किया है। आपको चलना ही होगा। आपको देखते ही वह अवश्य शर्मिंदा हो जाएगा और अपने किए की क्षमा मांगेगा। बस, मैं संतुष्ट हो जाउंगा।
महात्मा बुद्ध समझ गए कि शिष्य में प्रतिकार की भावना प्रबल हो उठी है। इस पर सदुपदेश का प्रभाव नहीं पड़ेगा। कुछ विचार करते हुए वह बोले, अच्छा वत्स! यदि ऐसी बात है तो मैं अवश्य ही रामजी के पास चलूंगा, और उसे समझाने की पूरी कोशिश करूंगा। बुद्ध ने कहा, हम सुबह चलेंगे।
सुबह हुई, बात आई-गई हो गई। शिष्य अपने काम में लग गया और महात्मा बुद्ध अपनी साधना में। दूसरे दिन जब दोपहर होने पर भी शिष्य ने बुद्ध से कुछ न कहा तो बुद्ध ने स्वयं ही शिष्य से पूछा- ‘प्रियवर! आज रामजी के पास चलोगे न ?’
नहीं गुरुवर! मैंने जब घटना पर फिर से विचार किया तो मुझे इस बात का आभास हुआ कि भूल मेरी ही थी। मुझे अपने कृत्य पर भारी पश्चाताप है। अब रामजी के पास चलने की कोई जरूरत नहीं।
तथागत ने हंसते हुए कहा, ‘यदि ऐसी बात है तो अब अवश्य ही हमें रामजी महोदय के पास चलना होगा। अपनी भूल की क्षमा याचना नहीं करोगे।’
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