कथा – गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को शास्त्रों से लेकर शस्त्रों तक की शिक्षा देते थे. उनकी कोशिश रहती थी कि उनके विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास हो. एक दिन उन्होंने अपने शिष्यों को पाठ पढ़ाया- ‘सत्यं-वद्’. इस मंत्र का अनेक बार उच्चारण करवाया, फिर शिष्यों से कहा इसे कल अच्छी तरह याद करके आना. सभी विद्यार्थी उन चार अक्षर वाले मंत्र को दूसरे दिन याद करके पहुंचे! लेकिन कक्षा में युधिष्ठिर ने खड़े होकर कहा- ‘गुरुदेव मुझे अभी यह पाठ याद नहीं हुआ.’
गुरुजी ने कहा- ‘ठीक है, कोई बात नहीं कल याद कर लाना’. अब गुरुजी ने अन्य विद्यार्थियों को अन्य पाठ पढ़ा दिया. दूसरे दिन जब गुरुजी ने युधिष्ठिर से पाठ सुनाने के लिए बोला, तब भी युधिष्ठिर ने कहा- ‘याद नहीं हुआ’.इस प्रकार कई दिन तक युधिष्ठिर यही कहते रहे कि ये मंत्र बड़ा कठिन है, सही प्रकार से याद ही नहीं हो पा रहा है. दो सप्ताह बाद गुरुजी युधिष्ठिर को डांटते हुए बोले, ‘इतने दिन हो गए, चार अक्षर याद नहीं होते’? युधिष्ठिर बोले- ‘लिखने और पढ़ने की दृष्टि से यह मंत्र बहुत छोटा है. कुछ पल में याद हो सकता है, पर इससे क्या होगा? जब तक इस मंत्र का अर्थ और भाव व्यवहार में न आ जाय, तब तब उसका याद करना बेकार है. मैं ‘सत्यं वद्- ‘सत्य बोलो’ की शिक्षा को अपने व्यवहार में उतारने की कोशिश कर रहा हूं. अभी पुरानी अनावश्यक झूठ बोलने की आदत के कारण सत्य बोलने का पाठ पक्का नहीं हो पा रहा है, इसलिए इतने दिन लग रहे हैं. जब यह पाठ मेरे आचरण में पक्का हो जाएगा, मैं तब मानूंगा यह मुझे याद हो गया है.’
युधिष्ठिर की ऐसी सच्ची बातें सुनकर गुरु द्रोणाचार्य बड़े प्रसन्न हुए. युधिष्ठिर ने ‘सत्यं वद्’ के पाठ को जीवन में ऐसा पक्का किया कि वो सत्यवादी बन गए और जीवन भर उसको निभाते रहे. हम शास्त्रों को तो पूजते हैं, लेकिन शास्त्रों में लिखी बात नहीं मानते. शास्त्रों के प्रति सच्ची श्रद्धा यही है कि शास्त्र में लिखी बातों को जीवन का हिस्सा बनाए, जिससे हमारा जीवन निखरेगा और सर्वांगीण विकास होगा.
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